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उसके वचन से नल ने आज्ञा दी, तब भक्ति के आश्रय रूप सारथि ने कुंडिनपुर की दिशा की ओर घोड़े चला दिए। आगे चलने पर एक भयंकर अटवी आई, जहाँ बाघों की गुर्राहट से गिरी की गुफाएं घोरातिचोर दिखाई देती थी। वह सर्यों से भी अधिक भयंकर थी, सैकडों शिकारी प्राणियों से व्याप्त थी, चौर्यकर्म करने वाले भीलों से भरपूर थी, सिंहों से मारे गये वनहस्तियों के दाँतों से जिसकी भूमि दंतर हो चुकी थी यमराज के क्रीड़ास्थल जैसी वह अटवी प्रतीत होती थी। इस अटवी में नलराजा आए। तब आगे जाने पर कर्ण तक खींचे हुए धनुष के धारण किए हुए यमराज के दूत जैसे प्रचंड भील उनको दिखाई दिये। उनमें से कोई मद्यपान की गोष्ठी में तत्पर होकर नाच रहे थे कोई एकदंत हाथी के जैसे दिखाई देते सींगड़ें को बना रहा था, कोई रंगभूमि में प्रथम नट करे वैसे कलकल शब्द कर रहे थे, कोई मेघ जलवृष्टि कर रहे थे, वैसे बाणवृष्टि कर रहे थे, और कोई मल्ल की तरह बाहुयुद्ध करने को करास्फोट कर रहे थे। इन सर्व ने एकत्रित होकर हाथी को जैसे श्वान घेर लेते हैं उसी तरह नल राजा को घेर लिया। उनको देखकर नल शीघ्र ही रथ में से उतरकर म्यान में से तलवार निकालकर उसे नर्तकी की तरह अपनी मुठिरूपी रंगभूमि में नचाने लगे। यह देख दवदंती रथ में से उतरी और उसने हाथ पकड़ कर नल को कहा खरगोश पर सिंह की तरह इन लोगों पर आपको आघात करना उपर्युक्त नहीं है। इन पशु जैसे लोगों पर प्रयोग करने से आपकी तलवार जो कि भरतार्ध की विजयलक्ष्मी की वासभूमि है, उसे बहुत लज्जा लगेगी।
(गा. 487 से 495) इस प्रकार कहकर दवदंती मंडल में रही हुई मांत्रिकी स्त्री की तरह अपने मनारेथ की सिद्धि के लिए पुनः पुनः हुंकार करने लगी। वे हुंकारें भील लोगों के कर्ण में प्रवेश करते ही तुरंत उसके प्रभाव से तीक्ष्ण लोहे की सुई जैसी मर्मभेदी हो गई। इससे सब भील लोग घबरा कर दसों दिशाओं में भाग गये। उनके पीछे ये राजदंपती ऐसे दौड़े कि जिससे रथ से बहुत से दूर हो गए। इतने में दूसरे भीलों ने आकर उस रथ का भी हरण कर लिया। जब दैव ही विपरीत हो तब पुरूषार्थ क्या कर सकता है? तब इस भंयकर अटवी में नलराजा दमयंती का हाथ पकड़ कर पाणिग्रहण के उत्सव को स्मरण करता हुआ चारों तरफ घूमने लगा। कांटें चुभने की वजह से वैदर्भी के चरण में से निकलते रूधिर बिंदुओं से उस अरण्य की भूमि इंद्रगोपमय सी हो गई। पूर्व में नलराजा का जो वस्त्र वैदर्भी
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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