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________________ कुबेर की आज्ञा से वसुदेव ने वह मुद्रिका निकाल दी। इसलिए वह नाटक के पात्र के समान अपने स्वरूप को प्राप्त हुए। तब वसुदेव के स्वरूप को पहचान कर, उज्जवल दृष्टिवाली वह रमणी मानो उसका हर्ष बाहर आया हो वैसे पुलकांकित हो गई। तत्काल नुपूर का रणकार करती कनकवती ने पास जाकर अपनी भुजलता की भाँति स्वयंवर की माला उसके कंठ में आरोपित की। उस समय कुबेर की आज्ञा से आकाश में दुंदुभिनाद हुआ। अप्सराएँ उत्सुक होकर मांगल्य के सरस गीत गाने लगी। अहो! इन हरिशचंद्र राजा को धन्य है कि जिसकी पुत्री ने जगत्प्रधान पुरूष का वरण किया, ऐसी आकाश वाणी उत्पन्न हुई। कुलांगनाएँ जैसे लाजा धाणी की वृष्टि करती है, उसी प्रकार कुबेर की आज्ञा से देवताओं ने धन आदि वसुधारा की वृष्टि की। पश्चात हर्ष का एकछत्र राज्य बढाते वसुदेव और कनकवती का विवाहोत्सव हुआ। (गा. 209 से 215) तब वसुदेव ने कुबेर से पूछा कि तुम यहाँ क्यों आए ? उसे जानने का मुझे कौतुक है। ऐसे प्रश्न के उत्तर में जिन्होंने विवाह ककंण बांधा हुआ है, ऐसे वसुदेव को कुबेर ने कहा- हे कुमार! मेरा यहाँ आने का कारण सुनो। इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में अष्टापद गिरी के पास संगर नाम का नगर है। उस नगर में मम्मण नाम का राजा था और उसके वीरमती नाम की रानी थी। एक बार राजा रानी के साथ नगर के बाहर शिकार खेलने के लिए गये। राक्षस के जैसे शूद्र आश्य वाले उस राजा ने अपने साथ किसी संघ के साथ आते हुए किसी मनमलिन साधु को देखा। यह मुझे अपशकुन हुआ है मुझे मृगया के उत्सव में विघ्नकारी होगा ऐसा सोचकर उसने यूथ में से हाथी को रोकते हैं, वैसे संघ के साथ आते हुए उन मुनि को रोका। पश्चात शिकार करके आने पर राजा रानी के साथ राजद्वार में वापिस लौटे। और मुनि को बारह घड़ी तक दुखमय स्थिति में रखा। तत्पश्चात उन राज दंपति को दया आने से मुनि को पूछा कि तुम कहाँ से आये हो और कहाँ जा रहे हो? ये कहो! मुनि बोले मैं रोहतक नगरी से अष्टापद गिरी पर स्थित अर्हत बिंब को वंदन करने के लिए संघ के साथ जा रहा था परंतु तुमने मुझे संघ से वियोजित किया, इससे मैं अष्टापद तीर्थ पर जा नहीं सका। परंतु इस धर्मकार्य करते मुझे रोकने से तुमने महान अंतराय कर्म बांधा है। इस प्रकार मुनि के वचनों को सुनकर वह दंपति लघुकर्मी होने से मुनि के साथ वार्ता करते तत्काल दुखस्वप्न की भांति गुस्से को भूल गये। तब 90 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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