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६४० रत्नसागर, श्रीजिन पूजा संग्रह. परणति करण करावण । सकल लोक सुखकरणे ॥ मेरी० ॥ १॥ गहिर सिंधु नव निपतीत तारण । तरण तराणि गुणधरणे ॥ मेरी० ॥अनंतरूप घर घरगति नयहर। परमज्योति अधिकरण ॥ २ ॥ मेरी ॥ करुणाधार विमलगुण आगर । निरुपम अशरण शरणें ॥ मेरी० ॥ ए जिनचरण दीप पूजनसें । अरचीजै पुखहरणे ॥ ३ ॥ मेरी० ॥ केवल विमल चिदानंद ल हीयै। दीपपूजके करणें ॥ मेरी०॥ रतनदीपसें करै आरती । हरषित जिन गुण वरणें ॥ ४॥ मेरी० ॥ ए प्रनुचरण सेव नवि जनकुं । अम्रित पद सुवितरणें ॥ मेरी० ॥ कुमति रजनी अग्यान तिमिरहर । वर शिवचंद्र मुकिर णें ॥ मेरी०॥५॥(काव्यं ) मदन सिंधुर सिंधुर वैरिणं । गुरुकषाय करे ए समीरणं । मदधरा धरता बल वैरिणं । जिनगणं प्रयजे सुप्रदीपकै ॥६॥
जी श्री अर्ज परमात्मने । प्रणत० । कठिन । नंदीश्वर० । श्री ऋषना नन, चंद्राननः वारिषेण, वर्षमाना, निधाना ऽष्टोत्तरैकशत शाश्वत जि नेंद्रेभ्यो। दीपं यजामहेस्वाहा ॥ ॥ इति पंचमी दीपपूजा ॥ ५॥
॥ ॐ ॥ अथ(६) अक्षत पूजा॥ॐ॥ ॥ ( दूहा)॥ठी अक्त अरचना । करियै धरि सुन्नन्नाव । बरि यै सिधिवधू परम । अक्षय सुखनोदाव ॥१॥ (राग सारंग.) हां होरे देवा बावन्नाचंदन घसि कुमकुमा (ए चाल ) ॥ हांहोरेवाला ॥ एजगदीशर हि तकरू । अलवेसर जिनमहाराज ए ( हांहोरेवाला ) अतिगहिरा जव जल धि तें। प्रनु तारण तरण जिहाजए ॥१॥ (हांहोरे० ) नीमकरम कुंजर घटा। नंजन मृगराज समानए ( हांहोरे०) नव्यकमल प्रतिबोधवा । ए प्रनु वासर महिरानए ॥२॥ (हांहोरे) रजतशालि तंऽलमयी । अक्त पूजन अग्रसारए ( हांहोरे०) ए पूजा जिनचंद्रनी। वांगित सुखनी दातारए ॥३॥ (हांहोरे) ठवण जिनंद दरशण अझै । अनुन्नव रस तरुनो कंदए। (हांहोरे० ) नाव जिणेसर दरशनो। कारण कह्यो सकल जिणंदए ॥४॥ हां ॥ए पाठक शिवचंद्रनें। जिनचरण शरण आधारए । हां ॥ प्रतिजव हुइज्यो एकही । ही अक्त पूजा सारए ॥ ५॥ ( काव्यं विजित में दर जूधर धीरतं । निहत सागर राज गंजीरतं । प्रजित पातक योष सुबीरतं