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कलिकत्ता मंगण श्री शीतल, शांति जिन स्तवन. ५१७ मुख दातार तुं ही पायो मही ॥२॥ तुमनांमें अडसिघ नवे निध पाइयै । दिन २ बढतो तेज कीरति जगनाइयै । इंद नरिंद सहू बस होय तुम सेव तां । नबव आनंद होय सहूगुण कैवतां ॥३॥ तप जप संजम नार कडू नहीं बणसकै॥ वहुल कर्मकै जोर चित नहिं रहसकै । जो आतम गुण ग्यांन प्रगट होय माहरो। तो पांमुं सहु नेद बिनकमें ताहरो । ब्रह्मा बिष्णु महेश जाणुं मुझ सारषा । बीतरागतुं देव करीमें पारखा । दीनदया ल दया निधि शिवसुख दीजियै । मोहन निजगुण पाय एही जश लीजिये इति जगन्मएमण श्रीशीतलजिन स्तवनम् ॥ ॥
॥ ॥ ॥ पुनः॥ ॥ ॥ॐ॥ (श्रीसंखेसर पाश० ) (और) नदी जमुनाकै तीर नमै दो य पंखिया । (झांरा लाल न० ) इस चालमें ॥ दृढरथ नंदानंद पूरण अतिशय धरू । बदन कमलको तेज देखी लिपै दिन करू । अंगन पांग लवण दीसै सहु दीपता । रूपे सुर नर इंद सहूकुं जीपता॥१॥ मुगट कुंमल गलहार बाजूबंध सोहता। वतस्थल श्रीबन तिलक मनमो हता। उत्र चामर नाममल गुण सहु फरसता। अणियाला दोय नेत्र अ मीरस वरसता ॥२॥ देव नुवन जिम चैत्य बण्यो बहु जावसें । देखी प्र फुल्लित होय सहू गुण दावसें । अनुपम महमा देखि चित्त अति मोहि यो। आनंद अधिक अपार हियामें सोहियो॥ ३ ॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव्यो बहुकालमें । मोह मिथ्यातकै जोर पडयो बहुजालमें । पूरण पु न्य हिव जोग प्रनु दरशण मिल्यो । जव जय संकट उक्ख सहू निश्चै ट ल्यो॥ ४ ॥ तारण जवजल मांहि शीतल प्रनु जाणियो । तुम गुण अपरंपार हिया में पिगंणियो । शिवसुख लक्ष्मी प्रधान सेवक वद्री नणी । मोहन प्रनु सुख कंद मिलै शीतल धणी ॥५॥ इति कलकत्ताममण श्री शीतलनाथजी स्तवनम् ॥ ६॥
॥*॥ ताल तुमरी॥॥ ॥ ॥ वीरप्रनु तेरी दोस्तीमें । मेरी मुमता सखी मेहरवान नईरे ॥ (वी.) आप नहीं आवै बोधा पठावै । तेरी सुरत कुरवांन नईरे॥ (वी०)