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रत्नसागर.
, ॥ ॥ अथ श्री पार्श्व जिनस्तवन ॥8॥ ॥ ॥जय २ श्रीजिन राज । जग जन अन्तर जामी। तारण तरण जिहाज । परमातम परिणामी ॥ १ ॥ परम पुरुष परमेस । परमानंद प्र धान । परम प्रकास विसेस । निरमल ज्ञान निधान ॥ २ ॥ जगपति पा स जिणंद । प्रनु तुम हो नप गारी । सुनियै सेवक जान । असी अरज हमारी ॥ ३ ॥ मोह महामद नूलि । में बहुकाल गमायो। निजपर जा व विवेक । सुघ सुनाव नपायो ॥ ४ ॥ निरमल चेतन नाव । कर्म कलं कित कीनो। ताकारण गुण गोमि । पर ओगुण चित दीनो ॥ ५ ॥ निज अवगुण सुणिकान । दिलमें रोस नरानं । अग्रता निज गुणगान । मुनिवैकुं कमाई ॥ ६ ॥ आश्रव पांचे असुन । दिलसें दूर नजावै । कुम ति कदाग्रह जोग । समता सुघ न आवै ॥ ७ ॥ अब कबु पुण्य संयोग । प्रनु तुम मुद्रा देखी । सुघ अध्यातम लीन । नाव अमुच नवेखी ॥ ८ ॥ निरखि २ अनुबिंब । मनमें आनंदपाऊं । गाऊं तुझगुणग्राम । देव अवर नविचाहुं ॥९॥ करुणाकरि प्रनुमुझ । प्रातम निरमल कीजै । सुघदसा प्रगटाय । मोह विकलता जीजै॥१०॥ नव२ निजपद सेव । प्रनु सेवककुं दीजै। श्री जिन शक्ति पसाय । सुमति विलाश वरीजै ॥११॥ ॥४॥ ॥ ॥ इति श्री पार्श्वजिन स्तवनं ॥४॥ ॥ ॥ ॥ॐ॥
॥ ॥ पुनः॥ ॥ . ॥ नविका श्रीजिनबिब जुहारो ॥ आतम परम आधारोरे । (न विकाश्रीजि०) जिनप्रतिमा जिनसारषी जाणो । नकरो संकाकाई। गमवाणीने अनुसारै । राखो प्रीत सवाईरे॥न० श्री०॥ १॥ जे जिनविं ब स्वरूप न जाणें । तेकहिये किम जाणे। नूला तेह अज्ञाने नरिया । न ही तिहां तत्वपिगणोरे॥न श्री० ॥ २ ॥अंबम श्रावक श्रेणिक राजा। रावण प्रमुख अनेक। विविध परै जिन नगति करंता । पाम्या धरम वि वेकरे॥न श्री०॥ ३ ॥ जिन प्रतिमा बहु जगत जोतां। होय नि श्चय उपगार। परमारथ गुण प्रगटै पूरण। जोज्यो आद्र कुमाररे ॥ न. श्री०॥४॥ जिनप्रतिमा आकारे जलचर। बहु जलधि मकार । तेदेखी