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रत्नसागर. पांचशे माल । दीधे नवकारें गया देवलोकें विलसे अमर विमान । ए मं प्रथकी संपति वसुधामां लही विलसे जैन विहार ॥ सो० ॥ १३ ॥ आगे चोवीशी हुई अनंती । होशे वार अनंत । नवकार तणी कोई आद न जाणे एम नाखै अरिहंत ॥ पूरव दिशि चारे आदि प्रपंचें समस्यांसंप तिसार । सो० ॥ १४ ॥ परमेष्टी सुरपद ते पण पामे जे कृत कर्म क
गेर ॥ पुंमरगिरिकपर प्रत्यक्ष पेख्यो मणिधरने एकमोर । सह गुरु सन्मुख विधियें समरतां सफल जनम संसार ॥ सो० ॥ १५ ॥ सूलीकारोपण तस्कर कीधो लोहखरो परसिघ । तिहांसे नवकार सुणाव्यो पाम्यो अमरनी च। शेठने घर आवी विघ्न निवारयो सुरें करी मनोहार॥सो० ॥१६॥ पंचपरमेष्टि झानज पंचह पंच दान चारित्र ॥ पंच सिशाय महा व्रत पंचहु पंच सुमति समकित्त । पंच प्रमाद विषय तजो पंचह पालो पंचाचार ॥॥ सो० ॥ ॥ १७ ॥ कलश (उप्पय) नित जपीयें नवकार सार संपति सुखदाय क। सिघ मंत्र ए शाश्वतो एम जंपेश्री जगनायक । श्री अरिहंत सुसिध शुध आचार्य प्रणीजें । श्री नवशाय सुसाधु पंच परमेष्टि थुणीजें । नव कार सार संसारजे । कुशल लाजवाचक कहे । एक चित्तें आराधतां विधि रुधि वंचित लहे ॥१८॥ इति ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥
॥॥ पुनः नवकार बंद ॥ ॥ ॥ॐ॥ सुख कारण नवियण समरूं श्रीनवकार। जिन शासन आगम चनदै पूरबसार । इण मंत्रनी महिमा कहितां नलहुं पार । सुरतरु जिम चिंतित वंचित फल दातार ॥१॥ सुर दानव मानव सेव करै करजोम। नुइ मंगल विचरै तारै वियण कोम । सुरदै विलसै अतिसय जास अनंत। पहिले पद नमियै अरि गंजन अरिहंत ॥ २ ॥ जे पनरै नेदै सिघ थया जगवंत । पंचमि गति पुहता अष्ट करम करिहंत । कल अकल सरूपी पंचा नंतक जेह । जिनवर पाय प्रणमुं बीजैपद वलि एह ॥ ३ ॥ गढ मार धुरंधर सुंदर ससिहर सोम । करि सारण वारण गुणउत्तीसे थोम । श्रुत जाण शिरोमणि सागर जेम गंभीर । तीजै पद नमियै आचारज गुण धीर ॥४॥श्रुतधर गुण आगम सुत्र जणावैसार । तप विध संयोगे नाणे अरथ