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श्राद्धविधि-ग्रन्थ अर्थात् श्रावक-जीवन की रूपरेखा
लेखक :- प्रसिद्ध प्रवचनकार पूज्य मुनिश्री (वर्तमान पन्यास श्री महाबोधिविजयजी महाराज बालक से लेकर बूढ़े तक की सबकी अपनी समयसारिणी होती है । इतने बजे स्कूल जाना, इतने बजे कक्षा में जाना, इत्यादि बालक की समयसारिणी है । इतने बजे ट्रेन पकड़नी...इतने बजे आफिस जाना इत्यादि बड़ों की समयसारिणी है । इस तारीख को उस राज्य में...उस तारीख को अमुक सज्य में इत्यादि राजनेताओं की समयसारिणी है । अरे ! दूरदर्शन और रेडियो प्रोग्राम की भी समयसारिणी होती है...परन्तु अफसोस ! जिनेश्वर भगवन्त के शासन में जन्म लेने के बाद किस प्रकार धर्मप्रधान जीवन जीना, इसकी समयसारिणी आपने बनायी ?
जिसे जीवन में शान्ति, मृत्यु के समय समाधि और परलोक में सदगति व परम्परा से मुक्ति की चाहना हो, उस श्रावक की दिनचर्या की समयसारिणी हमें पूज्य आचार्य श्री रत्नशेखरसूरीश्वरजी विरचित "श्राद्धविधि ग्रन्थ' में देखने को मिलती है । पाँच सौ से भी अधिक वर्ष बीतने पर आज भी उस ग्रन्थ की उतनी ही गरिमा है । श्राद्धविधि ग्रन्थ तो प्रत्येक गृहस्थ का अमूल्य आभूषण है । प्रत्येक घर में इसकी प्रति अवश्य होनी चाहिए। कपाट में बन्द करने के लिए नहीं किन्तु घर के प्रत्येक सभ्य को कम-से-कम एक बार तो इसका अवश्य वाचन करना चाहिए । भोजन से जैसे पेट भरा जाता है, उसी प्रकार वाचन से ही आचार-पालन में दृढ़ता आती है ।
इस ग्रन्थ में क्या है ? इस प्रश्न करने के बजाय इस ग्रन्थ में क्या नहीं है ? यह प्रश्न करने का मन होता है । दैनिक व रात्रिक कर्तव्यों के साथ-साथ पर्वदिन व चातुर्मास सम्बन्धी कर्तव्य भी इसमें हैं । वार्षिक व आजीवन कर्तव्यों का भी सुन्दर वर्णन है । धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की सुन्दर व्यवस्था इस ग्रन्थ में है। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि अर्थ व काम तभी पुरुषार्थ कहलाते हैं जब वे धर्म को बाधा नहीं पहुँचाते हो । यदि अर्थ से धर्म को हानि होती हो तो वह अर्थ नहीं किन्तु अनर्थ है।
इस ग्रन्थ के अध्ययन के बाद प्रत्येक श्रावक को अपनी समयसारिणी या चार्ट बना लेना चाहिए । अतिदुर्लभ यह मनुष्यभव पशुओं की भाँति लक्ष्यहीन प्रवृत्ति करने के लिए नहीं मिला है । आज के मनुष्य की प्रवृत्तियों को देखने पर लगता है कि भले ही उसका भव बदला हो किन्तु भाव तो पशुयोनि के ही बने हुए हैं | घोड़े की तरह दौड़ना, कुत्ते की तरह भौंकना व बकरे की तरह जहाँ-तहाँ मुँह डालना-ये सब पशु योनि के ही लक्षण हैं। इतना होने पर भी मनुष्य बुद्धि के कारण पशुओं से अलग पड़ता है । प्राप्त बुद्धि से जीवन को सरल-सफलस्वस्थ व स्वच्छ बनाये तब तो बुद्धि की सफलता है, अन्यथा बुद्धि का दुरुपयोग ही कहा जायेगा । श्री कुमारपाल महाराज की दिनचर्या . सूर्यादयपूर्व वे नमस्कार महामंत्र के स्मरणपूर्वक उठते थे और सामायिक-प्रतिक्रमण कर योगशास्त्र व वीतरा
गस्तोत्र का स्वाध्याय करते थे। उसके बाद कायशुद्धि कर गृहमन्दिर में पुष्पादि विधि से प्रातः पूजा करते थे ।
तत्पश्चात् यथाशक्ति पच्चक्खाण करते थे। • कायादि सर्वशुद्धिपूर्वक वे ७२ सामन्तों व १८०० करोड़पतियों के साथ त्रिभुवनपाल विहार में अष्टप्रकारी
जिनपूजा करते थे। . उसके बाद वे गुरुपूजा करते थे और गुरुवन्दन कर पच्चक्खाण लेते ते ।।
वे गुरु भगवन्त के पास आत्महितकर धर्मकथा का श्रवण करते थे ।
अपने स्थान में आकर लोगों की फरियादें सुनते थे । • नैवेद्य थाल धर कर गृहचैत्यों की पुनः पूजा करते थे । . उसके बाद साधर्मिक बन्धुओं के साथ संविभाग कर उचित अनुकम्पादि दानपूर्वक शुद्ध भोजन करते थे ।
सभा में जाकर विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ का विचार करते थे। वे राजसिंहासन पर बैठकर सामन्त-मंत्री श्रेष्ठी आदि के साथ राजकीय विचार-विमर्श करते थे । अष्टमी-चतुर्दशी को पौषध-उपवास व अन्य दिनों में दिन का आठवाँ भाग शेष रहने पर संध्याकालीन भोजन करते थे। शाम को गृहचैत्य में आरती-मंगलदीप आदि करते थे।
उसके बाद उपाश्रय में जाकर सामायिक प्रतिक्रमण करते थे । . फिर गुरु भगवन्त के पास शंका-समाधान व धर्मचर्चा करते थे ।