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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / ७१ उस चित्रकार ने पुनः उस यक्ष की आराधना की । यक्ष ने उसे बायें हाथ से भी चित्रकर्म करने का वरदान दिया । तत्पश्चात् उस चित्रकार ने बायें हाथ से मृगावती रानी का चित्र बना दिया । अपने वैर का बदला लेने के लिए उसने वह चित्र चण्डप्रद्योत राजा को बतलाया । चण्डप्रद्योत ने शतानीक पर दूत भेजकर कहलाया कि मृगावती मुझे सौंप दो, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। शतानीक ने दूत का तिरस्कार किया । आखिर चण्डप्रद्योत ने कौशाम्बी घेर ली उस युद्ध में शतानीक मारा गया । चण्डप्रद्योत ने मृगावती की मांग की तो मृगावती ने कहलाया - "मैं आपके आधीन ही हूँ, सर्वप्रथम, आपके सैनिकों ने इस नगरी के किले को तोड़ दिया है, अतः उज्जयिनी नगरी से ईंटें मंगवाकर इसे ठीक कर दो तथा धन-धान्य से परिपूर्ण कर दो ।" कामातुर चण्डप्रद्योत ने मृगावती के निर्देशानुसार सब कुछ कर दिया । इसी बीच भगवान महावीर प्रभु का वहाँ आगमन हुआ । चण्डप्रद्योत तथा उसकी रानियाँ तथा मृगावती आदि भी प्रभु के समवसरण में आयीं । उस समय एक भील ने आकर प्रभु को प्रश्न करते हुए कहा - 'या सा सा सेति' यानी "जो वह थी क्या वही वह है ? " प्रभु ने भी उसे जवाब देते हुए कहा - 'एवमेतद्' यानी 'हाँ वही वह है ।' गौतम स्वामी के पूछने पर प्रभु ने 'या सा सा सा' का यथावस्थित सम्बन्ध सुनाया, जिसे सुनकर मृगावती तथा चण्डप्रद्योत की आठों रानियों को वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसी समय उन्होंने दीक्षा स्वीकार करली | यहाँ किसी को प्रश्न हो सकता है कि प्रविधि से करने की अपेक्षा तो न करना ही श्रेष्ठ है ? इसका जवाब देते हुए शास्त्रकार कहते हैं- "अविधि से करने की अपेक्षा न करना श्रेष्ठ है, इस प्रकार का अनुचित वचन शास्त्रज्ञ पुरुष नहीं बोल सकता, क्योंकि जिसने कुछ भी नहीं किया उसे अधिक प्रायश्चित्त आता है और जिसने क्रिया में अविधि की, उसे अल्प प्रायश्चित्त आता है ।" करने में सर्वशक्ति से विधि के अतः धर्मानुष्ठान निरन्तर करते रहना चाहिए, किन्तु उसे पालन में यत्न करना चाहिए । यही श्रद्धालु का लक्षण है । कहा भी है- "श्रद्धालु एवं शक्तिवाला श्रावक विधिपूर्वक ही अनुष्ठान करता है । अगर शरीर या सम्पत्ति प्रादि किसी प्रकार की कमी हो तो भी पूर्ण विधि करने की भावना तो जरूर रखता है ।" भाग्यशाली पुरुषों को विधि का योग मिलता है, "विधि से आराधना करते वे सदा ही धन्य हैं और विधि का बहुमान करने वाले और विधिमार्ग की निन्दा नहीं करने वाले भी धन्यवाद पात्र हैं ।" निकट मोक्षगामी जीवों को सदैव विधिपूर्वक करने का भाव होता है और भव्य जीव विधि का त्याग करते हैं तथा दूरभव्य जीवों को अविधि में श्रादर होता है ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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