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श्रावक जीवन-दर्शन/५७
करके रंधा हुआ धान्य जगत् के लिए जीवन रूप होने से सर्वोत्कृष्ट रत्न है, इसी कारण वनवास से आये श्रीराम ने महाजनों के अन्न की कुशलता की पृच्छा की थी।
परस्पर एक साथ बैठकर भोजन करने से कलह की निवृत्ति और प्रेम की अभिवृद्धि होती है। देवता भी नैवेद्य से प्रायः खुश होते हैं। सुना जाता है कि प्रतिदिन मूठ प्रमाण नैवेद्य देने से अग्निवेताल, विक्रमादित्य के अधीन हुआ था।
भूत-प्रेत आदि भी उत्तारण आदि में खीर, खिचड़ी, बड़े आदि के भोजन की ही याचना करते हैं। दिक्पाल आदि को बलि तथा तीर्थकर की देशना के बाद बलि अन्न आदि से ही करते हैं।
# एक बार एक निर्धन किसान ने साधु भगवन्त के कहने से प्रतिदिन पास के मन्दिर में नैवेद्य चढ़ाने के बाद ही भोजन करने का नियम लिया। वह नियम का अच्छी तरह से पालन करने लगा। एक बार भोजन देरी से आया। अधिष्ठायक देव उसकी परीक्षा के लिए मन्दिर के आगे सिंह रूप धारण करके बैठा। फिर भी वह किसान चलित नहीं हुआ। जैसे किसान आगे बढ़ा वैसे ही वह सिंह हटने लगा। किसान ने मन्दिर में प्रवेश करके नैवेद्य रखा। बाद में जाकर वह भोजन करने के लिए बैठा। वहाँ वह देव श्रमण, स्थविरश्रमण, बालश्रमण के रूप में क्रमशः आया। श्रमण एवं स्थविरश्रमण को दान दिया एवं बालश्रमण को अपना बचा हुआ पूरा भोजन देने के लिए तत्पर हुअा। उसी वक्त वह देव प्रत्यक्ष प्रा। उसने उसे वरदान दिया कि आज से सातवें दिन स्वयंवर में राजकन्या को प्राप्त करोगे तथा राज्य और विजय प्राप्त करोगे। देववचन सफल हुआ और वह गरीब किसान राजा बन गया।
लोक में भी कहा है-"धूप पाप को जलाता है, दीप मृत्यु का नाश करता है, नैवेद्य विपुल राज्य प्रदान करता है और प्रदक्षिणा से सिद्धि प्राप्त होती है।"
अन्नादि सभी वस्तुओं की उत्पत्ति में जल ही कारणभूत होने से यह अन्न से भी अधिक है, अतः इसे भी प्रभु के समक्ष रखना चाहिए । नैवेद्य चढ़ाने और आरती करने का विधान आगम में भी है।
आवश्यक नियुक्ति में कहा है-'नैवेद्य किया जाता है।'
निशीथ सूत्र में भी कहा है--"उसके बाद प्रभावतीदेवी ने नैवेद्य-धूप-दीप आदि सर्व बलिकर्म करके कहा, देवाधिदेव महावीर वर्धमान स्वामी है। उनकी प्रतिमा की जाय ।" इस प्रकार कहकर कुल्हाड़ा चलाया गया। उसके बाद वह पेटी दो भागों में विभक्त हुई और उसमें से सर्व अलंकारों से विभूषित जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा प्रगट हुई।
निशीथपीठ में भी कहा है-अशिव के उपशमन के लिए जो चावल पकाये जाते हैं उसे बलि कहते हैं।
निशीथचरिण में कहा है-सम्प्रति राजा उस रथ के सामने विविध प्रकार के फल, खाद्य, शाक दाल, वस्त्र आदि की भेंट धरता है।
# यह पूरी कथा प्राकृत में श्री विजयचन्द केवली चरित्र में है ।