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________________ श्राद्धविधि/४२ आदि से प्रभु की द्रव्यपूजा दूसरों के द्वारा करानी चाहिए और अग्रपूजा एवं भावपूजा स्वयं करनी चाहिए। क्योंकि शरीर की अपवित्रता में प्रभुपूजा करने से आशातना की सम्भावना रहती है, इस कारण ऐसे व्यक्ति को प्रभु की अंगपूजा करने का निषेध है। कहा भी है-"पाशातना की उपेक्षा कर अपवित्र शरीर से और भूमि पर गिरे हुए फूलों से प्रभुपूजा करने वाले भवान्तर में चाण्डाल बनते हैं।" पुण्यसार राजा का दृष्टान्त कामरूप नगर में किसी चाण्डाल के घर एक पुत्र पैदा हुआ। पूर्वभव के वैरी किसी व्यन्तर ने उस नवजात बालक का अपहरण कर उसे किसी जंगल में छोड़ दिया। उस समय कामरूप नगर का राजा वन में परिभ्रमण के लिए आया हुआ था। उसने उस बालक को देखा और स्वयं पुत्ररहित होने से वह उसे उठाकर अपने महल में ले आया। राजा ने उसे पुत्र के रूप में स्वीकार कर लिया और उसका 'पुण्यसार' नाम रखा। क्रमशः पुण्यसार यौवनवय को प्राप्त हुआ। राजा ने पुण्यसार को राजगद्दी सौंप दो और स्वयं ने दीक्षा ले ली। सुन्दर संयमधर्म के प्रभाव से मुनि को केवलज्ञान पैदा हुआ। वे केवली भगवन्त क्रमशः विहार करते हुए कामरूपनगर में पधारे। पुण्यसार राजा और नगरवासी लोक केवली भगवन्त को वन्दन करने के लिए पधारे । उस समय पुण्यसार को जन्म देने वाली चाण्डालिनी भी वहाँ आई। राजा को देखते ही उसके स्तन में से दूध की धारा बहने लगी। यह देख राजा को अत्यन्त ही आश्चर्य हुआ। राजा के पूछने पर केवली भगवन्त ने कहा-“हे राजन् ! तुम्हें जन्म देने वाली यह तुम्हारी माता है। तू तो मुझे वन में मिला था।" राजा ने पूछा- “भगवन्त ! किस कर्म के उदय से मैं चाण्डाल हुआ ?" केवली भगवन्त ने कहा-"पूर्वभव में तू एक व्यापारी था। एक बार जिनेश्वर को पूजा करते समय एक पुष्प जमीन पर गिर गया था, उसे पूजा के लिए अयोग्य जानते हुए भी अवज्ञापूर्वक तूने वह फूल प्रभु को चढ़ाया। बस, इसी पाप के कारण तू चाण्डाल बना है। कहा भी है-"जो कीट आदि के द्वारा खण्डित फल, फूल और बिगड़े हुए नैवेद्य प्रभु को चढ़ाता है, वह आगामी जन्म में नीच गोत्र में पैदा होता है। पूर्व भव में तुम्हारी जो माता थी, उसने रजस्वला होने पर भी प्रभुपूजा की थी-इस कारण वह मरकर चाण्डालिनी बनी है।" अपने पूर्व भव को सुनकर वैराग्य-वासित बने राजा ने दीक्षा स्वीकार की और शीघ्र आत्मकल्याण किया। भूमि पर गिरे हुए सुगन्धित पुष्प को भी प्रभु पर नहीं चढ़ाना चाहिए और थोड़ी भी अपवित्रता होने पर प्रभुपूजा नहीं करनी चाहिए। विशेषकर मासिक धर्म के दिनों में अपवित्रता
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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