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श्रावक जीवन-दर्शन/३७
मल-मूत्र योग्य स्थल
राख अथवा गोबर का ढेर हो, गाय के बैठने और बाँधने का स्थान हो, वल्मीक (दीमकों से बनाया गया मिट्टी का टीला) वाला स्थान हो, अनेक लोगों ने जहाँ मल-मूत्र किया हो, आम्रगुलाब आदि उत्तम वृक्ष जहाँ हो, अग्नि हो, आने-जाने का मार्ग हो, पानी का स्थान हो, श्मशान आदि भयंकर स्थान हो, नदी का किनारा हो, स्त्री तथा पूज्य पुरुष की दृष्टि पड़ती हो इत्यादि स्थानों को छोड़कर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए। मल-मूत्र का तीव्र आवेग हो तो उस समय की उचित परिस्थिति को देखकर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए।
प्रोपनियुक्ति में साधु को उद्देशित कर लिखा है-(१) जहाँ कोई अचानक नहीं आता हो, जहाँ कोई देखता न हो, (२) जहाँ बैठने से लोक में निन्दा अथवा मारपीट नहीं होती हो, (३) जहाँ की भूमि समतल हो, (४) घास आदि से ढकी हुई न हो क्योंकि ऐसे स्थान पर बिच्छू, सर्प आदि हों तो काटते हैं तथा चींटी आदि पर पानी गिरने से उन्हें पीड़ा या विराधना होती है, (५) अग्नि आदि से ताजा अचित्त बनी हुई भूमि पर शौच करें। दो मास के बाद वही भूमि मिश्र हो जाती है यानी अचित्त नहीं रहती है। जिस स्थान पर वर्षाकाल तक ग्राम बसा हो वह स्थान. १२ साल तक अचित्त रहता है, (६) जघन्य से एक हाथ चौड़ा हो, (७) नीचे की जमीन अग्नि आदि के ताप से जघन्य से चार अंगुल अचित्त होनी चाहिए, (८) महल, बगीचे के पास शौच न करें, सख्त हाजत हो तो पास में शौच कर सकते हैं, (६) स्थान बिल आदि रहित होना चाहिए, (१०) त्रसजीव तथा बीज नहीं होने चाहिए।
- दिशा, पवन, ग्राम, सूर्य तथा छाया का विवरण नीचे है। जगह का तीन बार प्रमार्जन कर 'अणुजारगह-जस्सुग्गह-पाठ बोलकर मल-मूत्र को वोसिराना चाहिए और शुद्धि करनी चाहिए।
• उत्तर और पूर्व दिशा पूज्य होने से उस दिशा के सम्मुख मल-मूत्र नहीं करना चाहिए।
• दक्षिण दिशा में रात को पीठ नहीं करनी क्योंकि रात को भूत-पिशाच दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा में जाते हैं, ऐसा लोक में कहा जाता है।
• पवन को पीठ देने पर नाक में बदबू घुसने से नाक में खीला रोग होते हैं। • सूर्य और गाँव के सम्मुख बैठने से लोक में निन्दा होती है।
.. जिसके मल में कृमि निकलते हों, उसे छाया में मलत्याग करना चाहिए। कारणवश धूप में करना पड़े तो दो घड़ी तक छाया करके खड़े रहना चाहिए।
• मूत्र रोकने से चक्षु को नुकसान होता है, मल रोकने से जीवन की हानि होती है। वमन को रोकने से कोढ़ रोग होता है अथवा इन तीनों को रोकने से अनेक रोग पैदा होते हैं ।
• मल-मूत्र तथा श्लेष्मादि का जहाँ त्याग करना हो, वहाँ पहले 'प्रणुजारह जस्सुग्गहों कहकर वोसिराना चाहिए और तुरन्त 'वोसिरे-वोसिरे-वोसिरें तीन बार मन में बोलना चाहिए।