________________
श्राद्धविषि/३४
वह
भी
कत्था, खदिरवटी, जेठीमधु, तज, तमालपत्र, इलायची, लौंग, कोठी, विडंग,बिड़लवण, अजमोद, कुलिंजन, पीपरामूल, चीणीकबाब, कचूरा, मोथा, कंटासेलिया, कपूर, संचल, हरड़-बहेड़ा, कुभठ, बबूल, धव, खैर, शमी के छाल, पत्र, सुपारी, हिंगाष्टक, हिंगुलतेहंसा, पंचकूल, पुष्करमूल, जवासकमूल, बावची, तुलसी, कपूरीकन्द आदि। पच्चक्खारणभाष्य तथा प्रवचनसारोद्धार के अभिप्राय से जीरा स्वादिम है और कल्पवृत्ति के अनुसार जीरा खाद्य है। कुछ प्राचार्यों के मत से अजवायन खाद्य है।
सभी प्रकार के स्वादिम, इलायची, कपूर आदि का पानी दुविहार के पच्चक्खाण में कल्प्य है। • बेसन, सौंफ, सोवा, कउठवड़ी, आमलगंठी, आम्रगुठली, कोठापत्र, निंबुपत्र आदि खादिम होने के कारण दविहार में नहीं कल्पते हैं। तिविहार में सिर्फ जल ही कल्पता है फूका पानी, सीकरी, कपूर, इलायची, कत्था, खेरसार, कसेल्लक, पाड़ल आदि का पानी निथरा हुप्रा अथवा छना हुआ ही काम आता है उसके बिना नहीं।
___ यद्यपि शास्त्र में मधु, गुड़, शक्कर, खांड, पतासा आदि स्वादिम में गिने गये हैं और अंगूर का पानी, शक्कर का पानी और छाछ पानी में गिने हुए हैं, फिर भी दुविहार आदि के पच्चक्खाण में वे नहीं कल्पते हैं।
नागपुरीय गच्छ के प्रत्याख्यान भाष्य में कहा है कि श्रुत में द्राक्ष के पानी को पानी में तथा गुड़ आदि को स्वादिम में गिना गया है, फिर भी तृप्तिकारक होने से उनके उपभोग का निषेध है ।
स्त्री के सम्भोग से चौविहार का भंग नहीं होता है परन्तु बालक आदि के होठ का चर्वण (चुम्बन) करने से चौविहार (एवं तिविहार) का भंग होता है, परन्तु दुविहार का भंग नहीं होता है।
ये पच्चक्खाण कवलाहार सम्बन्धी ही हैं, लोमाहार सम्बन्धी नहीं हैं। इसीलिए उपवास, आयंबिल आदि में शरीर पर तैलमर्दन करने एवं घाव आदि पर आटा आदि बाँधने पर भी पच्चक्खाण का भंग नहीं होता है। लोमाहार की तो निरन्तर सम्भावना रहती है, अतः यदि लोमाहार से पच्चक्खाण भंग माना जाय तब तो पच्चक्खाण ही नहीं हो सकेगा। प्रणाहारी वस्तुएं
नीम के पांचों अंग (मूल, पत्र, फूल, फल और छाल), मूत्र, गिलोय, कडु, चिरायता, प्रतिविष, कुड़ा, चीड़, चंदन, राख, हल्दी, रोहिणी, ऊपलोट, वंज, त्रिफला, बबूल की छाल (किसी के मत से), धमासा, नाव्य, मासंध, रिंगणी, एलिमो, गूगल, हरड़ेदल, वण, बोरड़ी, कंथेरी, केरड़ामूल, jाड़, बोड़, थेरी, पाछी, मजीठ, बोल, बीमो, कुंवारि, चित्रक, कुंदर आदि जिनका स्वाद अनिष्ट-अप्रिय हो, वैसी वस्तुएँ प्रणाहारी मानी जाती हैं। रोगादि के प्रसंग पर चौविहार में भी ये ले सकते हैं।
कल्पवृत्ति के चौथे खण्ड में कहा है-रात्रि में स्थापित प्राहार की विचारणा करनी चाहिए।