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________________ श्राद्धविधि / ३० निश्चितता का अभिग्रह करने से उन्हें छोड़कर अन्य सभी सचित्त के त्याग का जीवन पर्यन्त स्पष्ट ही अधिक लाभ मिलता है । कहा भी है- “ फल-फूल के रस, मांस-मदिरा तथा स्त्री के भोग को जानते हुए भी जो उनका त्याग करते हैं, ऐसे दुष्कर कारकों को मैं वन्दन करता हूँ ।" सर्वसचित्त पदार्थों में भी नागरबेल के पान का त्याग दुष्कर है । क्योंकि अन्य सब सचित्त वस्तुओं को चित्त करने पर भी उनका स्वाद ले सकते हैं - विशेष करके ग्राम आदि का । नागरबेल के पान निरन्तर पानी में पड़े रहने के कारण उनमें नील, फूल, कुंथु आदि के अंड प्रत्यधिक विराधना होती है अतः पापभीरु व्यक्ति को वे पान रात में तो खाने ही नहीं चाहिए । कदाचित् कोई खाता हो तो भी दिन में बराबर देख करके ही उनका उपयोग करना चाहिए । ये पान कामोत्तेजक होने से ब्रह्मचारी व्यक्ति को तो विशेष करके इनका त्याग करना चाहिए । प्रत्येक वनस्पतिकाय के सचित्त पत्ते व फल में असंख्य जीवों की विराधना की सम्भावना है । आगम में भी कहा है पर्याप्ता की निश्रा में असंख्य अपर्याप्ता जीव उत्पन्न होते हैं । जहाँ एक पर्याप्ता जीव है, वहाँ असंख्य अपर्याप्तां जीव होते हैं । यह तो बादर एकेन्द्रिय में कहा गया है । चारांग वृत्ति में कहा है – जहाँ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्ता जीव होते हैं, वहाँ निश्चय से असंख्य पर्याप्ता जीव होते हैं । इस प्रकार एक पत्ते आदि से असंख्य जीवों की विराधना होती है और उसके आश्रित नीलकाई आदि की सम्भावना होने पर अनन्त जीवों की विराधना हो जाती है । जल, लवरण आदि तो असंख्य जीव-स्वरूप ही हैं । श्रार्षवारणी है - "जिनेश्वर भगवन्त ने जल की एक बूंद में जितने जीव कहे हैं वे सरसों जितने हो जाँय तो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में भी नहीं समा सकते ।" "आर्द्र आँवले प्रमाण पृथ्वीकाय के टुकड़े में जितने जीव होते हैं, वे कबूतर जितने हो जाँय तो जंबूद्वीप में भी नहीं समा सकते ।" सर्व सचित्त-त्यागी अंबड परिव्राजक बड़ परिव्राजक के ७०० शिष्य थे - वे सब सर्वसचित्त के त्यागी थे। उन्होंने श्रावकधर्म स्वीकार किया था । अन्य के द्वारा दिये गये अचित्त अन्न-जल का ही वे उपभोग करते थे । एक बार ग्रीष्म ऋतु में गंगा के किनारे जंगल में भटकते हुए वे एकदम तृषातुर हुए परन्तु सचित्त और प्रदत्त जल के त्याग का नियम होने से उन्होंने नदी के जल का उपयोग नहीं किया और अन्त में उन सात सौ परिव्राजकों ने अनशन द्वारा देहत्याग किया। वे मरकर ब्रह्मदेवलोक में इन्द्र समान ऋद्धि वाले सामानिक देव बने । इस प्रकार श्रावक को सचित्तत्याग के लिए प्रयत्न करना चाहिए ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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