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श्राविधि/२२
"व्रतभंग में महान् दोष है, थोड़े भी व्रत का पालन गुणकारी है। धर्म के विषय में गुरुलाधव का अवश्य विचार करना चाहिए। इसी कारण पच्चवखाण में प्रागार (अपवाद) रखे गये हैं।"
नियम-पालन का महान् फल है। कमल श्रेष्ठी ने कौतुक से 'पास में रहे कुम्भकार की टाल देखे बिना भोजन नहीं करूंगा' का नियम लिया था। मात्र कौतुक से लिये नियम का पालन करने पर भी उसे निधान की प्राप्ति हुई थी तो फिर पुण्य हेतु से जो नियम करेगा उसे तो कितना महान् फल मिलेगा! कहा भी है
"पुण्य के अभिलाषी को थोड़ा बहुत भी नियम अवश्य लेना चाहिए। वह थोड़ा भी नियम कमल श्रेष्ठी की तरह अधिक लाभ के लिए होता है।"
परिग्रह-परिमाण व्रत की दृढ़ता पर रत्नसार का दृष्टान्त आगे कहेंगे। नियमग्रहण-विधि
• प्रथम मिथ्यात्व का त्याग करना चाहिए।
• नित्य एक, दो या तीन बार जिनदर्शन, जिनपूजा, देववन्दन और चैत्यवन्दन का नियम करना चाहिए।
• गुरु का योग हो तो बृहद् अथवा लघु वन्दन और गुरु का योग न हो तो उनके (गुरु के) नाम ग्रहणपूर्वक भाव से वन्दन करना चाहिए।
• प्रतिदिन, वर्षा-चातुर्मास में अथवा पाँच पर्वतिथियों में अष्टप्रकारी पूजा करनी चाहिए।
• जीवन पर्यन्त नवीन धान्य, पक्वान्न और नवीन फल आदि को प्रभु समक्ष चढ़ाये बिना ग्रहण नहीं करना चाहिए।
• प्रतिदिन परमात्मा के सामने सुपारी आदि नैवेद्य रखना चाहिए।
• प्रतिदिन अथवा कात्तिक, फागुन और आषाढ़ी चातुर्मासिक दिन, दीपावली और पर्युषण मादि पर्वदिनों में प्रभु-समक्ष अष्ट मंगल की रचना करनी चाहिए।
• प्रतिदिन/पर्वदिनों में अथवा वर्ष में कभी-कभी खादिम-स्वादिम आदि उत्तम वस्तुएं प्रभु-समक्ष नैवेद्य के रूप में रखकर अथवा गुरु को बहोराकर ही भोजन करना चाहिए।
. प्रतिवर्ष अथवा प्रतिमास महाध्वजा-प्रदान आदि द्वारा भव्य स्नात्र महोत्सव का प्रायोजन करना चाहिए।
• प्रतिवर्ष या प्रतिमास रात्रिजागरण करना चाहिए।
• प्रतिदिन अथवा वर्षा में कभी-कभी जिनमन्दिर की शुद्धि तथा मरम्मत प्रादि करानी चाहिए।
• प्रतिवर्ष अथवा प्रतिमास मन्दिर में अंगलूछन, दीप के लिए रुई, मन्दिर की व्यवस्था के लिए दीप, तेल, चन्दन आदि देना चाहिए।