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श्राद्धविधि / ३६०
हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक में भी यही क्रम है, सब जगह इन्द्रकविमान तो गोल ही होते हैं ।"
इस प्रकार की व्यवस्था से चित्त के स्वास्थ्य को प्राप्त कर वे दोनों इन्द्र स्थिर हो गये, उन्होंने परस्पर मत्सर भाव छोड़ दिया और वे दोनों परस्पर प्रीति वाले हो गये
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उस समय चन्द्रशेखर देव ने देवताओं में अग्रणी हरिणंगमेषी को कौतुक से पूछा - " विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति होगा जिसे लोभ न हो ? अरे ! इन्द्र जैसे भी लोभी हो जाते हैं तो फिर दूसरों की तो क्या बात करना ? अहो ! तीनों जगत् में लोभ का एकछत्र साम्राज्य है जिसने लीला मात्र से देवेन्द्रों को भी घर का दास बना दिया ।"
हरिगमेषी ने कहा - " मित्र ! तुम्हारी बात ठीक है किन्तु पृथ्वी पर किसी वस्तु की नास्ति नहीं है । अभी वसुसार सेठ का पुत्र रत्नसार है जो लोभ से भी क्षोभित नहीं होता है। उसने परिग्रह परिमाण का व्रत स्वीकार किया है, देवता और इन्द्र भी उसे अपने नियम से चलित नहीं कर सकते हैं । महालोभ के जल के तीव्र प्रवाह में अन्य सब तृरण की तरह बह जाते हैं, परन्तु वह तो कृष्ण चित्रकलता की भाँति भोगता भी नहीं है ।"
“केसरीसिंह जिस प्रकार दूसरे की हाँक को सहन नहीं करता उसी प्रकार उसके वचन को सहन नहीं करने के कारण वह चन्द्रशेखर देव तुम्हारी परीक्षा के लिए यहाँ आया । उसने पिंजरे सहित पोपट का अपहरण किया था और उसी ने नवीन सारिका, शून्य नगर और भीषण राक्षस का रूप किया था । उसी ने तुझे सागर में डाला था और अन्य भय भी उसी ने पैदा किये थे । हे पृथ्वी के अलंकार ! वह चन्द्रशेखर मैं स्वयं ही हूँ । हे उत्तम पुरुष ! तुम मेरी इन दुष्ट चेष्टाओं के लिए मुझे क्षमा करना । मुझे कुछ आदेश करो, क्योंकि देव का दर्शन निष्फल नहीं जाता है ।"
· कुमार ने कहा - "सद्धमं के योग से मेरे सर्व अर्थ सिद्ध हो गये हैं अतः मेरा कोई कार्य नहीं है । किन्तु हे देव ! नन्दीश्वर आदि तीर्थों की यात्रा करना जिससे तुम्हारा भी जन्म सफल हो ।'
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"हाँ ! इतना कहकर उसने कुमार को पोपट का पिंजरा दे दिया और शीघ्र ही उसे उठाकर कनकपुरी में छोड़ दिया । वहाँ पर राजा आदि के सामने उस देवता ने उसके माहात्म्य को बतलाया और फिर अपने स्थान पर चला गया ।
एक बार राजा की अनुज्ञा लेकर रत्नसार ने अपनी दोनों पत्नियों के साथ अपने नगर की और प्रयाण किया ।
यद्यपि वह एक व्यापारी का पुत्र था तथापि दीवान तथा सामन्तों से युक्त उसे बहुत विचक्षण पुरुषों ने राजकुमार ही समझा ।
स्थान-स्थान पर बीच मार्ग के राजाओं ने उसका स्वागत-सत्कार किया और कुछ दिनों के बाद क्रमशः वह रत्नविशाला नामकी नगरी में पहुँचा । कुमार की उस ऋद्धि-समृद्धि को देखकर