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________________ श्राद्धविधि / ३१४. जिज्ञासु राजा के पूछने पर विद्याधर ने राजा ने शुक को अपने मित्र का पुत्र जाना । परन्तु आश्चर्य है कि वह राजा मित्रपुत्र पर मित्रपुत्र को अपनी पुत्री भी प्रदान की । इस प्रकार करने से प्रेम बढ़ता ही है । भी सब वृत्तान्त प्रकट किया । वृत्तान्त सुनने पर शास्त्र में राजा (चन्द्र) मित्रपुत्र (शनि) का शत्रु है, अत्यन्त प्रीति करने लगा। उसने खुश होकर शूरवीर राजा ने वध-वर के लग्न का भव्य महोत्सव किया। राजा ने वर का भव्य स्वागत किया । सचमुच, प्रेम की यही प्रकृति है । राजा की प्रार्थना से वह भागोन्द्र पद्मावती के साथ लोलापूर्वक विलास करता हुआ वहीं रहा। जिस प्रकार नमक से ही रसोई स्वादिष्ट बनतो है, उसो प्रकार इस लोक के सभी कार्य पुण्य से ही सफल होते हैं । विवेकी पुरुष को सांसारिक कार्य करने के साथ-साथ उसके अन्तर्गत यथायोग्य धर्मकार्य भी अवश्य करने चाहिए। एक दिन राजा की अनुज्ञा लेकर और पत्नी को पूछकर विद्याधर सहित जिनमन्दिरों के नमस्कार के लिए वैताढ्य पर्वत पर चला गया । आती हैं चित्र-विचित्र वेताढ्य पर्वत की समृद्धि का प्रास्वाद लेता हुआ वह मार्ग में चलता हुआ। गगनवल्लभ नगर में पहुँचा । वहाँ विद्याधर ने अपने माता-पिता को शुक्रराज के उपकार का वर्णन किया। खुश होकर उन्होंने शुकराज को वायुवेगा नाम की अपनी पुत्री प्रदान की। वह तीर्थं को नमस्कार करने के लिए प्रत्यन्त उत्कण्ठित था, फिर अन्तरंग प्रीति से उन्होंने सत्कारपूर्वक उसे थोड़े दिन वहाँ पर ही रखा । कदम-कदम पर भाग्यशाली तथा दुर्भागी को रुकावटें परन्तु एक को सत्कार से तथा दूसरे को तिरस्कार से। एक बार कोई पर्व प्राया और वे दोनों विमान में बैठे देवता की तरह तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। पीछे से 'शुकराज ! शुक्रराज प्रकार की जोर से आवाज सुनाई दी। उसे सुनकर वे दोनों प्राश्चर्यचकित होकर रुक गये । उन्होंने पूछा - " तुम कौन हो !" उसने कहा- "मैं चक्रेश्वरी नाम की देवी हूँ । सुगुरु की शिक्षा की भाँति गोमुख नाम के यक्ष की आज्ञा से काश्मीर देश में रहे विमलाचल तोर्थ को रक्षा के लिए जा रही हूँ । जाते हुए मैंने क्षितिप्रतिष्ठित नगर में किसी स्त्री का करुण रुदन सुना। उसके रुदन को सुनकर दुःखग्रस्त बनी मैं नीचे उतर आई। जो दूसरे को दुःखी देखकर भी दुःखो नहीं होता है, उसके जीवन से भी क्या ?" . इस ין 11 मैंने उसे पूछा --- "हे पद्माक्षि ! तुझे क्या दुःख है ? उसने कहा" मेरे शुक्र पुत्र को गांगल अपने आश्रम में ले गया था, लम्बा समय बीतने पर भी उसकी कुशलता के समाचार नहीं आये इसलिए मैं रो रही हूँ ।" मैंने कहा - "हे भद्रे ! तू मत रो। मैं वहीं पर जा रहो हूँ, लौटते समय तुम्हारे पुत्र की कुशलता के समाचार ले आऊंगी।" इस प्रकार उसे आश्वासन देकर उस तीर्थ की ओर गयी परन्तु तुझे नहीं देखने के कारण अवधिज्ञान से तेरी स्थिति को जानकर यहाँ आयी हूँ । हे चतुर ! अमृत के मेघ समान अपने दर्शन रूपी अमृत रस से अपनी आतुर माता का सिंचन करो। जिस प्रकार सेवक स्वामी का अनुसरण करता है उसी प्रकार सुपुत्र, सुशिष्य और • श्रेष्ठ कुलवधू अपने ज्येष्ठ पुरुषों का अनुसरण करते हैं। माता-पिता अपने सुख के लिए पुत्रों को इच्छा करते हैं और वे ही दुःख के कारण बन जायें तो सचमुच पानी में आग लगने जैसी हो प्रक्रिया है। माता तो पिता से भी अधिक सम्माननीय है । कहा भी है- "पिता से हजार गुणे गौरव वाली माता है ।" और भी कहा है- "जिसने गर्भ धारण किया, प्रसूति के समय उग्र शूल की वेदना सहन
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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