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________________ श्राद्धविधि/२८८ "इस प्रकार की ज्ञाननिधि यदि पास में रहे तो सब जानकारी प्राप्त हो जाए तथा सभी कार्य सिद्ध हो जायें। इस प्रकार के सहायक जीवों का योग कभी-कभी प्राप्त होता है और प्राप्त होने पर भी गरीब को हाथ लगे धन की तरह दीर्घकाल तक स्थिर नहीं रहता है।" ___"अहो ! यह तोता कौन है ? यह इतना ज्ञानी कैसे ? मुझ पर इतना वात्सल्य वाला कैसे? यह कहाँ से आया? इस वृक्ष पर से कहाँ चला गया? वृक्ष पर भी वस्त्रादि की वृष्टि कैसे हुई ? यह सेना यहाँ कैसे आ गयी? मेरे हृदय रूपी गुफा में रहे इन संशयों को उस तोते रूपी दीपक के बिना कौन दूर करेगा ?" राजा को इस प्रकार व्यग्र देखकर उसके सेवकों ने आग्रहपूर्वक उसका कारण पूछा। सेवकों के पूछने पर राजा ने सब बातें स्पष्ट सुना दीं। तोते के प्रारम्भ से कहे गये चरित्र को सुनकर वे सभी सैनिक आश्चर्यमुग्ध हो गये और बोले-“हे राजन् ! उस तोते से आपका शीघ्र ही मिलन होगा। क्योंकि जो जिसका हितैषी होता है, वह उससे निरपेक्ष नहीं रहता है। जिस प्रकार सूखा पत्ता शीघ्र नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी को पूछने पर आपका संशय भी शीघ्र नष्ट हो जायेगा, ज्ञानी पुरुषों के लिए क्या अगोचर है? इस प्रकार की चिन्ताएँ छोड़कर आप अपने नगर को पवित्र करें। मेघदर्शन से मयूर की तरह आपके दर्शन से नगरजन प्रसन्न होंगे।" उनके वचनों को राजा ने स्वीकार किया। समयोचित कही गयी और की गयी बात से कौन सम्मत नहीं होता है ? उसके बाद मंगल वाद्ययंत्रों से दिशाओं को गुजित करता हुआ राजा अपने नगर की ओर बढ़ा। अपने बिल से दूर खड़ा चूहा तक्षक सर्प को सामने आते देखकर जिस प्रकार भाग जाता है, उसी प्रकार मृगध्वज राजा को आते देखकर चन्द्रशेखर राजा भी भाग गया। .. प्रत्युत्पन्न बुद्धि वाले उस चन्द्रशेखर ने तात्कालिक सूझबूझ से राजा के प्रति एक दूत को कुछ सन्देश के साथ भेजा। उस सन्देशवाहक ने पाकर कहा ---"हे राजन् ! मेरे स्वामी (राजा) आपकी कृपा पाने के लिए यह विज्ञप्ति करते हैं कि किसी धूर्त से ठगे हुए की तरह आप राज्य को छोड़कर कहीं चले गये, इस बात को जानकर नगर की रक्षा के लिए मैं उपस्थित हुआ हूँ। परन्तु आपके सैनिकों को इस बात का पता नहीं होने से वे कवच पहिनकर हथियारों को उठाकर शत्र की तरह मेरे साथ लड़ने के लिए तैयार हुए। शत्रुओं से आपके नगर की रक्षा करते हुए मैंने अनेक प्रहार भी सहन किये। वह कैसा सेवक जो स्वामी के कार्य में भी एकमनवाला नहीं हो?" "पिता का कार्य आने पर पुत्र, गुरु का कार्य आने पर शिष्य, स्वामी का कार्य प्रा पड़ने पर पत्नी अपने प्राणों को भी तृण के समान समझती है।" ऐसे वचन सुनकर राजा को इन वचनों में संदेह पैदा हुना, फिर भी उदारतापूर्वक राजा ने इस बात को सत्य मान लिया और शीघ्र ही आ रहे चन्द्रशेखर का राजा ने सम्मान भी किया। अहो ! राजा की यह कैसी दक्षता ! दाक्षिण्य और गंभीरता ! उसके बाद लक्ष्मी के साथ विष्णु की तरह कमलमाला के साथ राजा ने परम महोत्सव के साथ अपने नगर में प्रवेश किया।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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