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________________ श्राद्धविधि/२५४ "जिनेश्वर भगवान की पीठ और सूर्य और महादेव की दृष्टि और विष्णु की बायीं तरफ को छोड़ना चाहिए। चंडिका सभी तरफ अशुभ है इसलिए उसका सब तरफ त्याग करना चाहिए।" ___ "घर के दाहिनी ओर अरिहन्त की दृष्टि पड़ती हो और महादेव की पीठ बायीं ओर पड़ती हो तो वह कल्याणकारी है, इससे विपरीत दुःखदायी है। परन्तु बीच में मार्ग हो तो दोष नहीं है।" . नगर व गाँव के ईशानादि कोण में घर नहीं करना चाहिए। वह सज्जनों के लिए अशुभ है तथा अन्त्यजों के लिए ऋद्धिकारक है। ___ स्थान के गुण-दोष की जानकारी शकुन, स्वप्न व श्रुति (शब्दश्रवण) आदि के बल से करनी चाहिए। अच्छा स्थान भी उचित मूल्य देकर पड़ोसी की अनुमति आदि पूर्वक ही ग्रहण करना चाहिए, न कि किसी का पराभव करके। किसी का पराभव करके लेने से त्रिवर्ग की हानि होती है। इसी प्रकार इंट, काष्ठ, पाषाण प्रादि वस्तुएँ भी निर्दोष, हड़ व उचित मूल्य से ही मंगानी चाहिए और लेनी चाहिए। वे वस्तुएँ भी विक्रेता ने बेचने के लिए अपने आप बनायी हों, वे हो लेनी चाहिए, परन्तु ऑर्डर से नहीं बनवाना चाहिए, क्योंकि उसमें महारम्भ आदि का दोष लगता है। उपयुक्त वस्तुएँ मन्दिर आदि सम्बन्धी हों तो नहीं लेनी चाहिए क्योंकि उसमें बहुत-सा नुकसान होता है। * दृष्टान्त * दो वणिक पास-पास में रहते थे। एक समृद्ध था और दूसरा गरीब था, जो समृद्ध था वह गरीब का कदम-कदम पर पराभव करता था। जो गरीब था वह प्रतिकार करने में असमर्थ था। एक बार उस समृद्ध सेठ का भवन बन रहा था, उस समय जिनमन्दिर में से एक ईंट उस भवन में डाल दी। मकान तैयार हो जाने पर उस गरीब ने उस सेठ को सब बात कह दी। उस सेठ ने कहा"इतने में क्या दोष है ?" इस प्रकार अवज्ञा करने से कुछ ही दिनों में उसकी सारी सम्पत्ति बिजली अग्नि आदि से नष्ट हो गयी। कहा भी है-"जिनमन्दिर, कूप, बावड़ी, श्मशान व राजमन्दिर सम्बन्धी सरसों मात्र भी पत्थर. ईट व काष्ठ आदि का त्याग करना चाहिए।" पाषाणमय स्तम्भ, पीठ, पाट व बारसाख आदि वस्तुएँ गृहस्थ के लिए विरुद्ध हैं, परन्तु धर्मस्थान के लिए शुभ है। पाषाणमय वस्तु पर काष्ठ व काष्ठमय वस्तु पर पाषाण स्तम्भ आदि का घर व जिनमन्दिर में प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिए। हल, घाणी, शकट व रहट के लिए काँटे वाले वृक्ष, बड़ आदि पाँच उंबरवृक्ष तथा दूध वाले प्राकड़े प्रादि की लकड़ियों का त्याग करना चाहिए।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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