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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / २४७ I 3." पाँच प्रकार के व्यवहार को जानने वाले होने चाहिए । पाँच व्यवहार - ( 1 ) श्रागम व्यवहार — केवली, मनः पर्यव ज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी तथा नौ पूर्वी को होता है । (2) श्रुत व्यवहार - आठ पूर्व से लेकर अर्ध पूर्वधर, ग्यारह अंग, निशीथ आदि सभी सूत्रों के धारकों को होता है । ( 3 ) प्राज्ञा व्यवहार -दूर-दूर भिन्न देशों में रहे दो गीतार्थ आचार्यों के परस्पर मिलन की सम्भावना न हो तो गूढ़ पदों के द्वारा जो आलोचना प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह प्राज्ञा व्यवहार कहलाता है । (4) धारणा व्यवहार - अपराध होने पर गुरु जो प्रायश्चित्त दिया हो उसे याद कर दूसरा उस अपराध का प्रायश्चित्त उसी प्रकार देता है उसे धारणा व्यवहार कहते हैं । ( 5 ) जोत व्यवहार - सिद्धान्त में जिस दोष के लिए जो प्रायश्चित्त कहा हो उससे होन अथवा अधिक प्रायश्चित्त परम्परा के अनुसार देना जीत व्यवहार है। वर्तमान में जीत व्यवहार मुख्य है । 4. लज्जा के कारण यदि आलोचना करने वाला सही बात कहने में हिचकिचाता हो तो उसे इस प्रकार की वैराग्यवर्धक बातें कहें कि वह लज्जा छोड़कर सब कुछ बता दे । 5. आलोचना करने वाले की सम्यग्विशुद्धि करने वाले हों । 6. आलोचक की बात अन्य किसी को कहने वाले न हों । आलोचक जिस तप आदि को करने में समर्थ हो, उसी के अनुसार प्रायश्चित्त देने 7. वाले हों । 8. अच्छी तरह से आलोचना नहीं करने वाले तथा प्रायश्चित्त नहीं करने वाले को उभय लोक में कितना नुकसान होता है - गीतार्थ गुरु इस बात को जानने वाले होते हैं । उपर्युक्त आठ गुणों से युक्त गुरु आलोचना कराने में समर्थ होते हैं । आलोचना का इच्छुक व्यक्ति गुरु के पास आलोचना लेने के लिए घर से निकला हो और बीच में ही मर जाय तो भी आराधक होता है । साधु अथवा श्रावक को सर्वप्रथम, शक्य हो तो अपने ही गच्छ के प्राचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए । उनका योग न हो तो उपाध्याय के पास, उनका भी योग न हो तो प्रवर्तक, स्थविर अथवा गणावच्छेदक के पास आलोचना करनी चाहिए | अपने गच्छ में उन सबका अभाव हो तो एक सामाचारी वाले सांभोगिक अन्य गच्छ में रहे हुए आचार्य आदि के पास आलोचना करनी चाहिए । उनका भी प्रभाव हो तो अन्य सांभोगिक संविग्नगच्छ के आचार्य आदि के पास आलोचना करनी चाहिए । उनका भी प्रभाव हो तो गीतार्थ पासत्था के पास श्रालोचना करनी चाहिए। उनका भी अभाव हो तो गीतार्थ सारूपिक के पास आलोचना करे । उनका भी अभाव हो तो गीतार्थं पश्चात्कृत के पास मालोचना करनी चाहिए । सफेद वस्त्रधारी, मुण्डन कराने वाला, कच्छर हित, रजोहररणरहित, ब्रह्मचारी, स्त्री रहित तथा भिक्षा ग्रहण करने वाला सारूपिक कहलाता है । शिखायुक्त व पत्नीयुक्त हो वह सिद्धपुत्र कहलाता है । चारित्र वेष को छोड़ने वाला पश्चात्कृत कहलाता है ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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