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श्राद्धविषि/२१४
प्रस्तुत गाथा में 'निद्रा' विशेष्य है और 'अल्प' विशेषण है। जो विशेषण सहित हो उसमें विधि और निषेध अपना सम्बन्ध विशेषण के साथ रखते हैं। अतः यहाँ पर 'अल्पत्व' विधेय है न कि निद्रा; क्योंकि दर्शनावरणीय कर्म के उदय से नींद तो स्वतः ही आती है, अतः नींद के लिए शास्त्रनिर्देश नहीं है। अतिनिद्रा से व्यक्ति इसलोक और परलोक के कृत्यों से भ्रष्ट बनता है। चोर, वैरी, धूर्त और दुर्जन व्यक्ति भी उस पर अचानक हमला कर सकते हैं। - अल्पनिद्रा महानता का लक्षण है । कहा भी है-“अल्पाहारी, अल्पवचनी, अल्पनिद्रालु और अल्प उपाधि-उपकरण रखने वाले को देवता भी नमस्कार करते हैं।"
नीतिशास्त्रानुसार निद्राविधिक जीवों से व्याप्त, छोटी, भग्न, कष्टदायक, मलिन, जिसमें अधिक पाये जोड़ते हुए हों, जिसके पाये जले हुए काष्ठ के हों ऐसी खाट का त्याग करना चाहिए।
___ सोने तथा बैठने में उपयोगी तख्ता वगैरह चार टुकड़े जोड़कर बनाया हो तब तक शुभ है। पांच आदि टुकड़े जोड़कर बनावे तो अपना और कुल का नाश ही होता है ।
अपने पूजनीय पुरुष से ऊँचे स्थान में न सोयें। पैर भीगे रखकर न सोयें। उत्तर व पश्चिम में मस्तक रखकर न सोयें। पाट के नीचे न सोयें। दोनों पैर हाथी के दाँत की तरह सिकोड़कर न सोयें। देवमन्दिर में, बांबी के ऊपर, वृक्ष के नीचे, श्मशान में तथा विदिशा में मस्तक करके नहीं सोना चाहिए। मल-मूत्र की शंका हो तो उसे दूर करके सोना चाहिए और उसके स्थान को जानकर पास में जल रखकर और द्वार बन्द कर सोना चाहिए।
इष्ट देवता को नमस्कार करके अपमृत्यु के भय को दूर करें। फिर रक्षा-मंत्र से पवित्र चौड़ी शय्या में, व्यवस्थित वस्त्र परिधानपूर्वक, सर्व आहार का त्याग कर कल्याण के इच्छुक को बायीं करवट पर नींद लेनी चाहिए । क्रोध, भय, शोक, मद्यपान, स्त्रीभोग, भारवहन, मार्गगमन आदि से थके हुए तथा अति
त तथा वृद्ध, बाल, कमजोर, प्यासे, शूल तथा घाव से पीडित तथा अजीर्ण के रोगी को जरूरत लगे तो दिन में भी सोना चाहिए।
ग्रीष्म ऋतु में वायु का उपचय तथा सूखी हवा होने से तथा अल्परात्रि होने से दिन में भी सोना चाहिए। अन्य ऋतु में दिन में सोने से श्लेष्म व पित्त होता है।
अति आसक्ति से बिना प्रसंग नींद लेना अच्छा नहीं है। अतिनिद्रा से कालरात्रि की तरह सुख और आयुष्य का नाश होता है।
सोते समय पूर्व दिशा में मस्तक करने से विद्या का, दक्षिण दिशा में मस्तक करने से धन का लाभ होता है। पश्चिम में मस्तक करने से प्रबल चिन्ता एवं उत्तर में मस्तक करने से मृत्यु तथा हानि होती है।