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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/२०७ 9 प्रतिक्रमण के पाँच भेद (1) देवसिक (2) रात्रिक (3) पाक्षिक (4) चातुर्मासिक और (5) सांवत्सरिक । इनका काल उत्सर्ग से इस प्रकार कहा गया है (1) सूर्य प्राधा डूब जाय तब गीतार्थ सूत्र (सामायिक सूत्र) कहते हैं। इस वचन प्रमाण से देवसिक प्रतिक्रमण का काल समझना चाहिए। (2) रात्रिप्रतिक्रमण का समय-आवश्यक का समय होने पर प्राचार्य निद्रा का त्याग करते हैं तथा उस प्रकार आवश्यक (प्रतिक्रमण) करते हैं कि जिस प्रकार दश पडिलेहन के समय सूर्योदय हो जाय। अपवाद से देवसिक प्रतिक्रमण दिन के तीसरे प्रहर के बाद से अर्धरात्रि तक कर सकते हैं। योगशास्त्र की टीका में तो मध्याह से लेकर अर्द्धरात्रि तक कहा है। रात्रिक प्रतिक अर्धरात्रि से लेकर मध्याह्न तक है। कहा भी है-"आवश्यकचूणि के अभिप्राय अनुसार 'राई प्रतिक्रमण' का काल उग्घाड़ पोरिसी तक है और व्यवहारसूत्र के अनुसार पुरिमड्ड तक है।" पाक्षिक, चातुर्मासिक व सांवत्सरिक प्रतिक्रमण पक्ष आदि के अन्त में होता है। प्रश्न-पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दशी को करें या पूर्णिमा/अमावस्या को? उत्तर-चतुर्दशी को करें। यदि पूर्णिमा को पाक्षिक प्रतिक्रमण करने का होता तो चतुर्दशी और पक्खी के दिन उपवास करने की विधि होने से पाक्षिक प्रतिक्रमण निमित्त छट्ट करने का विधान होता। इससे आगम-विरोध भी होता, क्योंकि सांवत्सरिक, चातुर्मासिक और पाक्षिक की आलोचना में क्रमशः अट्ठम, छ? और उपवास का विधान है। जहाँ चतुर्दशी का ग्रहण किया है वहाँ अलग से पाक्षिक का और जहाँ पाक्षिक का ग्रहण किया है, वहाँ चतुर्दशी का अलग से ग्रहण नहीं किया है। पाक्षिक चूरिण में अष्टमी व चतुर्दशी को उपवास करने का कहा गया है--- प्रावश्यक चूणि में कहा है-"वे अष्टमी-चतुर्दशी में उपवास करते हैं।" व्यवहारभाष्य पीठ में कहा गया है-“अष्टमी, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक में उपवास, छट्ठ व अट्ठम करें।" महानिशीथ में कहा है--"अष्टमी, चतुर्दशी, ज्ञानपंचमी और चातुर्मासिक के दिन........!" . व्यवहारसूत्र के छठे उद्देशक में 'पक्खस्स अट्ठमी...........' इत्यादि की व्याख्या में वृत्तिचूणि में पाक्षिक शब्द से चतुर्दशी ही ली गयी है ।.... इससे निश्चित हो जाता है कि चतुर्दशी को ही पक्खी प्रतिक्रमण करना चाहिए।" चातुर्मासिक व सांवत्सरिक प्रतिक्रमण पहले पूर्णिमा व पंचमी को करते थे, परन्तु श्री कालिकाचार्य के बाद चतुर्दशी और चतुर्थी को किया जाता है। सर्व-सम्मत होने से यह प्रामाणिक है।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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