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* द्वितीय-प्रकाश * दिनकृत्य कहने के बाद अब रात्रिकृत्य कहते हैं। संध्या के बाद श्रावक, साधु भगवन्त के पास अथवा पौषधशाला में जाकर यतनापूर्वक प्रमार्जन करके विधिपूर्वक सामायिक लेकर षट् आवश्यक स्वरूप प्रतिक्रमण करता है। स्थापनाचार्य की स्थापना, मुहपत्ती, रजोहरण (चरवला) आदि धर्म के उपकरण के ग्रहणपूर्वक सामायिक करनी चाहिए। इस सम्बन्धी विधि 'श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र' की टीका में कही है, इसलिए यहाँ नहीं कही गयी है।
सम्यक्त्व प्रादि के सर्व अतिचारों की विशुद्धि के लिए तथा अभ्यास के लिए प्रतिदिन उभयकाल (सुबह शाम) प्रतिक्रमण करना चाहिए। भद्रक स्वभाव वाले श्रावक को अतिचार नहीं लगने पर भी तीसरी औषध के समान हितकारी होने से यह प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। कहा भी है-"प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में सप्रतिक्रमण धर्म है और मध्य के तीर्थंकरों के शासन में अतिचार (दोष) लगने पर ही प्रतिक्रमण करने का विधान है।" अर्थात् बाईस तीर्थंकरों के शासन में, अतिचार न लगे तो पूर्वकोटि वर्ष तक भी प्रतिक्रमण नहीं करते हैं और अतिचार लग जाय तो मध्याह्न में भी कर लेते हैं।
तीन प्रकार की प्रौषधियाँ-(1) व्याधि हो तो व्याधि को दूर करती है और न हो तो नयी व्याधि पैदा करती है।
(2) दूसरी औषध-व्याधि हो तो व्याधि को शान्त करती है और न हो तो कुछ भी नुकसान नहीं करती है।
(3) तीसरी औषधि व्याधि हो तो व्याधि को नष्ट करती है और न हो तो शरीर को पुष्ट करती है, सुख वृद्धि का हेतु है और भावी व्याधि को अटकाती है ।
___ इसी प्रकार प्रतिक्रमण भी तीसरी औषध की तरह अतिचारों को दूर करता है और अतिचार के अभाव में चारित्र धर्म को पुष्ट करता है।
प्रश्न-किसी का प्रश्न है-पावश्यक चूणि में बतायी हुई सामायिक की विधि ही श्रावक का प्रतिक्रमण है। क्योंकि उभय काल अवश्य करणीय छह आवश्यकों का इसी में समावेश होता है। जैसे-सामायिक करके ईरियावहिय प्रतिक्रमण कर कायोत्सर्ग करता है और चतुर्विंशति-स्तव बोल कर वाँदना देकर श्रावक पच्चक्खाण करता है। “सामायिक उभय काल करनी चाहिए।"-इस पाठ से उसकी कालिक मर्यादा भी सिद्ध हो जाती है।
उत्तर-यह कथन बराबर नहीं है। सामायिक की विधि में छह आवश्यक और कालमर्यादा सिद्ध नहीं होती है। वहाँ आपके अभिप्राय से भी चूर्णिकार ने सामायिक, ऐर्यापथिकी प्रतिक्रमण और वन्दन ही साक्षात् बतलाये हैं, शेष नहीं। वहाँ ऐर्यापथिकी प्रतिक्रमण जाने-माने विषयक हैं न कि आवश्यक के चौथे अध्ययन स्वरूप !