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श्राद्धविषि/१९८
द्रव्य से अनुकम्पा अर्थात् यथोचित अन्न आदि प्रदान करना और भाव से अनुकम्पा अर्थात् उन्हें धर्ममार्ग में जोड़ना।
श्रावक का वर्णन करते समय भगवती सूत्र आदि में भी श्रावक के लिए 'अवगुअदुवारा' विशेषण दिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि भिक्षुक आदि के प्रवेश के लिए श्रावक के द्वार सदैव खुले रहते हैं।
तीर्थंकर भगवन्तों ने भी सांवत्सरिक-दान के द्वारा गरीबों का उद्धार किया है।
• विक्रमादित्य राजा ने भी अपने समय में सभी लोगों को ऋणमुक्त किया था, इसी कारण उसके नाम से संवत्सर चला।
• अकाल आदि के समय में गरीबों को सहायता करने से विशेष फल होता है। ___ कहा है-विनय से शिष्य की परीक्षा, युद्ध में सैनिक की परीक्षा, आपत्ति के समय में मित्र की परीक्षा और अकाल के समय में दान की परीक्षा होती है ।
• विक्रम संवत् १३१५ में भयंकर अकाल पड़ने पर भद्रेश्वरवासी श्रीमालज्ञातीय जगडुशाह ने एक सौ बारह सदाव्रत खुलवाकर दान दिया था।
"जगडुशाह ने अकाल पड़ने पर हमीर को बारह हजार, बीसलदेव को आठ हजार और बादशाह को इक्कीस हजार मूड़ा (एक माप) अनाज दिया था।"
-अणहिल्लपुर पाटण में सिंघाक नाम का सुनार था। उसके पास हाथी, घोड़े तथा बड़ा महल था। वि.सं. १४२६ में उसने आठ मन्दिर बनवाये और अनेक महायात्रायें की। ज्योतिष के ज्ञान से भावी अकाल को जानकर उसने दो लाख मण अनाज इकट्ठा कर लिया और उससे प्राप्त धन से उसने चौबीस हजार मण अनाज गरीबों को दान दिया।
उसने हजारों कैदियों को एवं छप्पन राजाओं को मुक्त किया। जिनमन्दिरों के द्वार खुलवाये और पूज्यश्री जयानन्द सूरि और देवसुन्दर सूरि के चरण-कमलों की स्थापना करायी; ये उसके धर्मकृत्य थे।
अतः श्रावक को भोजन के समय अवश्य दया करनी चाहिए। गरीब गृहस्थ भी यथोचित भोजन-रसोई बनाता है, जिसमें थोड़ा-बहुत याचकों को भी दिया जा सके। इस प्रकार करने से बहुत खर्च नहीं हो जाता है क्योंकि वे (गरीब याचक) तो थोड़े दान से भी सन्तुष्ट हो जाते हैं। कहा है
"कवल में से गिरे दानों से हाथी को क्या कमी हो जाती है ? परन्तु उन दानों से चींटियों के कुटुम्ब का पालन तो हो जाता है।"
इस प्रकार निरवद्य आहार तैयार होने पर शुद्ध सुपात्रदान का भी लाभ मिल जाता है । माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री, बहू, नौकर आदि तथा ग्लान व बँधे हुए गाय आदि के