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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/१६१ जो पिता और पितामह के धन को अन्याय से भक्षण करता है, वह मूलहर कहलाता है। जो व्यक्ति स्वयं को, अपने नौकरों को पीड़ा पहुँचाकर धन का संचय करता है और कभी धन का व्यय नहीं करता है वह कृपण कहलाता है। इसमें तादात्विक और मूलहर का धन नष्ट हो जाने के कारण धर्म और काम का भी नाश हो जाता है, इस प्रकार उसका कल्याण नहीं होता है। कृपण का अर्थसंग्रह-राजा, दायाद (जो पैतृक सम्पत्ति के एक भाग का अधिकारी हो) भूमि और तस्कर की ही निधि है, वह धन धर्म और काम में उपयोगी नहीं होता है। कहा है-जिस धन को दायाद लेने की इच्छा करते हैं, तस्कर लोग चोरी करना चाहते हैं, छल-कपट कर राजा उस धन को लेना चाहता है, क्षण भर में अग्नि उसे भस्मीभूत कर देती है। पृथ्वी में छिपे हुए धन को जल डुबो देता है और यक्ष जबरन उठा ले जाते हैं। उन्मार्गगामी पुत्र धन का नाश करते हैं अतः बहुतों के अधिकार वाले धन को धिक्कार हो।" "पुत्रवत्सल पति पर दुराचारिणी स्त्री हँसती है, उसी प्रकार शरीर की रक्षा करने वाले पर मृत्यु हँसती है और धन की रक्षा करने वाले पर पृथ्वी हँसतो है।" "चींटियों के द्वारा संचित धान्य, मक्खियों के द्वारा संचित शहद और कृपण के द्वारा उपार्जित लक्ष्मी दूसरों के द्वारा ही भोगी जाती है।" अतः धर्म, अर्थ और काम इन तीनों को बाधा पहुँचाना गृहस्थ के लिए उचित नहीं है। यदि दुर्भाग्य के कारण बाधा आ जाये तो उत्तरोत्तर को बाधा पहुँचा कर पूर्व-पूर्व का रक्षण करना चाहिए। अर्थात् काम को बाधा पहुंचाकर भी धर्म और अर्थ का रक्षण करना चाहिए। क्योंकि धर्म और अर्थ का रक्षण होगा तो काम की प्राप्ति तो सहज हो जायेगो। काम और अथं को बाधा पहुँचानी पड़े तो भी धर्म का तो अवश्य रक्षण करना चाहिए क्योंकि अर्थ और काम का भी मूल धर्म ही है। कहा भी है-"भिक्षा से भी जीवन निर्वाह करने वाला व्यक्ति यदि धर्म को बाधा नहीं पहुँचाता है तो उसे “मैं समृद्ध हूँ" ऐसा ही मानना चाहिए क्योंकि साधु पुरुष धर्म रूपी धन वाले ही होते हैं।" "मनुष्य-जीवन को प्राप्त कर जो त्रिवर्ग को साधे बिना ही मर जाता है तो उ आयुष्य पशु की तरह निष्फल ही है। उस त्रिवर्ग में भी धर्म ही श्रेष्ठ कहलाता है, क्योंकि उसके बिना अर्थ और काम की प्राप्ति भी नहीं होती है।" + आय के अनुसार व्यय है अपनी आय के अनुसार खर्च करना चाहिए। नोतिशास्त्र में कहा है-प्राय का चौथा भाग संग्रह करना चाहिए, आय का चौथा भाग व्यापार में लगाना चाहिए। प्राय का चौथा भाग धर्म और अपने उपभोग में खर्च करना चाहिए और शेष चौथे भाग से अपने आश्रितों का पोषण करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं-"श्राय का आधा अथवा उससे भी अधिक धर्म में खर्च करना चाहिए और शेष रकम से तुच्छ और इस लोक के कार्य प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए।" कुछ लोगों का मत है कि उपयुक्त दो वचनों में प्रथम वचन गरीब गृहस्थ के लिए और दूसरा वचन समृद्ध गृहस्थ के लिए समझना चाहिए। कहा है-"जोवन और लक्ष्मी किसको प्रिय नहीं है, परन्तु अवसर आने पर सत्पुरुष इन दोनों को तृण से भी हल्का समझते हैं।" "यश देने वाले कार्य में, मित्र की वृद्धि में, प्रिय पत्नी के विषय में, निर्धन भाई के विषय में, धर्म, विवाह, व्यसन और शत्र क्षय इन आठ कार्यों में बुद्धिमान पुरुष धन का व्यय करते समय उसकी गिनती नहीं करते हैं।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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