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श्रावक जीवन-दर्शन/१५६
धर्मकार्य में खर्च की जाती है, वह धर्म-ऋद्धि कहलाती है। शरीर के सुख एवं भोग में जिस ऋद्धि का उपयोग होता है, वह भोग-ऋद्धि कहलाती है। दान और भोग से रहित ऋद्धि पाप-ऋद्धि कहलाती है, जो अनर्थ फलदायी है। पूर्वकृत पाप के फल से पापऋद्धि प्राप्त होती है अथवा भावी पाप से पापऋद्धि प्राप्त होती है, इस सम्बन्ध में यहाँ एक दृष्टान्त है
ॐ पापऋद्धि का दृष्टान्त क वसंतपुर नगर में क्षत्रिय, ब्राह्मण, वणिक् और स्वर्णकार जाति के चार मित्र थे। धन कमाने के लिए वे परदेश गये। रात्रि में वे एक उद्यान में ठहरे। वहाँ उन्होंने किसी वृक्ष की डाल पर लटकते हुए एक स्वर्णपुरुष को देखा। एक ने कहा, "धन"। उसी समय स्वर्णपुरुष ने कहा"धन तो अनर्थ को देने वाला है।" इसे सुनकर सभी भयभीत हो गये और सभी ने वह स्वर्णपुरुष छोड़ दिया।
इसी बीच सोनी बोला-"गिरो।" उसी समय वह स्वर्णपुरुष नीचे गिरा। इसी बीच सोनी ने उसकी एक अंगुली काट दी और शेष को खड्ड में फेंक दिया। यह सब दृश्य सभी ने देखा। उनमें से दो मित्र भोजन लेने के लिए नगर में गये थे और दो बाहर खड़े थे। नगर में गये दो मित्र अपने अन्य दो मित्रों को खत्म करने के लिए विमिश्रित भोजन ले आये । बाहर खड़े मित्रों ने नगर से आये दोनों मित्रों को तलवार से खत्म कर दिया और उसके बाद उन्होंने वह विषमिश्रित भोजन किया। परिणामस्वरूप वे भी मर गये। यह पापऋद्धि का दृष्टान्त है।
प्रतः देवपूजा, अन्नदान आदि दैनिक पुण्य और संघ-पूजा, सार्मिक वात्सल्य आदि प्रासंगिक पुण्यकर्म से अपनी ऋद्धि को पुण्योपयोगी बनाना चाहिए।
यद्यपि प्रासंगिक पुण्य में अधिक धन का व्यय होने से वे कार्य बड़े कार्य हैं और दैनिक पुण्यकार्य छोटे हैं, परन्तु दैनिक पुण्यकर्म नित्य करने से बहुत अधिक फल मिलता है क्योंकि नियमित करते रहने से उसका भी फल बढ़ जाता है।
प्रासंगिक पुण्य भी दैनिक पुण्यपूर्वक करने पर ही औचित्य का पूर्ण पालन होता है-धन अल्प हो तो भी धर्मकार्य में विलम्ब प्रादि नहीं करना चाहिए। कहा है-"थोड़े में से भी थोड़ा दो, महान् उदय (लाभ) की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। इच्छानुसार दान की शक्ति कब किसको मिलेगी?"
कल का कार्य प्राज करें। अपराह्न का कार्य मध्याह्न में करें। क्योंकि मृत्यु 'अपना कार्य हुआ है या नहीं' इसकी प्रतीक्षा करने वाली नहीं है।
अर्थार्जन के लिए भी प्रतिदिन यथोचित प्रयत्न करना चाहिए। कहा है-"जिस दिन कुछ भी लाभ नहीं हो उस दिन को वणिक, वेश्या, कवि, भाट, तस्कर, ठग और ब्राह्मण व्यर्थ समझते हैं।" अल्प लक्ष्मी की प्राप्ति से ही उद्यम का त्याग नहीं कर देना चाहिए। माघ ने कहा है-"जो व्यक्ति थोड़ी सी सम्पत्ति प्राप्त कर ही अपनी स्थिति को अच्छी मान लेता है, उसका भाग्य भी अपने पापको कृतकृत्य समझकर उसकी धनवृद्धि नहीं करता है।"
अतिलोभ भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि लोक में भी कहावत है कि प्रति सर्वत्र वर्जयेत् ।