SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि/१३८ पिता की इन हितकारिणी शिक्षाओं के रहस्य को नहीं जानने के कारण क्रमशः उस प्रकार की प्रवृत्ति करता हुआ कुछ ही दिनों में वह निर्धन हो गया। इससे वह दुःखित हुआ। पत्नी आदि को अप्रिय हो गया तथा हर एक प्रकार से हरकतें भोगने लगा। लोग भी 'यह महामूर्ख हैं' कहकर उसकी मजाक करने लगे। आखिर परेशान होकर वह मुग्ध पाटलिपुत्र चला गया और वहाँ जाकर उसने श्रेष्ठी सोमदत्त को भावार्थ पूछा। सोमदत्त ने कहा-(1) "दाँतों के द्वारा बाड़ करना अर्थात् सभी के साथ प्रिय और हितकारी वचन बोलना।" (2) किसी को ब्याज से धन उधार देना हो तो पहले से ही उससे अधिक कीमत की वस्तु न्यास (गिरवी) रखना ताकि उससे रकम मांगने की जरूरत ही न पड़े, वह स्वयं ही ब्याज सहित रकम लौटा दे। (3) बंधनयुक्त पत्नी को ताड़ना अर्थात् लड़का-लड़की हो जाने के बाद ही कारण पड़े तो पत्नी को पीटना अन्यथा रुष्ट होकर वह पितृगृह जा सकती है अथवा कुए में गिरकर आत्महत्या भी कर सकती है। (4) मीठा ही भोजन करना अर्थात् जहाँ आदर-प्रीति दिखाई दे, उसी के घर भोजन करना। अथवा भूख लगने पर ही भोजन करना, जिससे लूखी वस्तु भी मीठी लगे। (5) सुखपूर्वक सोना अर्थात् नींद आने पर ही सोना (उसके सिवाय श्रम करते रहना)। .. (6) गाँव-गाँव में घर बनाना अर्थात् हर गांव में लोगों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करना ताकि अपने घर की तरह अन्यत्र भी भोजन सुखपूर्वक मिल सके। (7) आपत्ति में गंगातट खोदना अर्थात् घर में गंगा नाम की गाय जहाँ बँधी हुई है, उस स्थान को खोदना, वहाँ से पिता द्वारा गाड़ा हुआ धन प्राप्त होगा। सोमदत्त सेठ के पास से उन शिक्षाओं के गूढ़-अर्थों को जानकर मुग्ध बड़ा खुश हुआ और उसी प्रकार जीवन जीने के कारण धनी, सुखी और महान् बना। अतः व्यापार में उधार का व्यवहार नहीं रखना चाहिए। कदाचित् उधार-व्यवहार करना पड़े तो भी सत्यवादी लोगों के साथ ही करे और देश-काल का विचार कर एक, दो, तीन, चार, पाँच प्रतिशत, जो भी शिष्टजन के लिए अनिंद्य हो, उसी प्रकार ग्रहण करे । कर्जदार को भी पूर्व निश्चित काल-मर्यादा के पहले ही रकम दे देनी चाहिए। पुरुष की प्रतिष्ठा वचन-पालन के आधार पर ही रही हुई है। कहा भी है "जितने वचन का पालन कर सको, उतना ही वचन मुह से बोलना चाहिए। पहले से सोच-समझकर उतना ही भार उठाना चाहिए जिससे बीच मार्ग में उतारना न पड़े।" यदि धन-हानि आदि के कारण मर्यादित समय के भीतर उधार ली गयी रकम न चुका सके
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy