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श्रावक जीवन-दर्शन/१२७ राजा ने कहा-"निर्णय के बिना कसे भोजन किया जाय ?"
राजा भोजन के थाल को छोड़कर द्वार पर पाया और किसी पुरुष के बजाय एक गाय को देखकर बोला-"क्या किसी ने तुम्हारा पराभव किया है ? वह मुझे बताओ।"
. वह गाय आगे बढ़ी और राजा उसके पीछे-पीछे चला। उसने अपना मृत बछड़ा दिखाया।
राजा ने कहा-"जिसने वह गाड़ी चलायी है, वह मेरे सामने आये।"
उस समय सब मौन हो गये। राजा ने कहा- "मैं तभी भोजन करूंगा, जब इस बात का न्याय हो जायेगा।"
राजा को उस दिन लंघन (उपवास) हुआ। प्रातःकाल राजकुमार ने पाकर कहा"पिताजी ! मैं अपराधी हूँ, आप मुझे योग्य दण्ड दें।" राजा ने स्मृति के जानकारों को बुलाया और उनसे पूछा, "इसे क्या दण्ड दिया जाय ?"
उन्होंने कहा-"राजन् ! राज्य के योग्य एक ही तो पुत्र है, उसे क्या दण्ड दिया जाय ?" . राजा ने कहा-"किसका राज्य और किसका पुत्र ? मेरे लिए तो न्याय ही महान् है।" कहा भी है-"दुष्ट को दण्ड, सज्जन का सत्कार, न्याय से कोष की वृद्धि, अपक्षपात और दुश्मनराष्ट्र से रक्षा, ये पाँच राजा के यज्ञ कहे गये हैं।"
सोमनीति में कहा गया है-"अपराध के अनुरूप दण्ड तो पुत्र को भी देना चाहिए।"
"प्रतः जो भी दण्ड योग्य हो वह कहो।" इस प्रकार कहने पर भी जब वे मौन रहे तब राजा ने मनोमन निश्चय किया-."जो दूसरे के साथ जैसा व्यवहार करता है, वैसा ही व्यवहार उसके साथ करना चाहिए। अपराध के अनुसार दण्ड देना चाहिए।"
. . इस प्रकार विचार कर राजा ने स्वयं गाड़ी मँगवाई और राजपुत्र को कहा-“तुम मार्ग में लेट जाओ।"
राजकुमार भी विनीत होने से उसी समय लेट गया ।
राजा ने आदेश दिया- "इसके ऊपर वेग से गाड़ी चलायी जाय।" परन्तु कोई भी व्यक्ति गाड़ी चलाने के लिए तैयार नहीं हुमा । तब दूसरों के द्वारा रोकने पर भी राजा स्वयं उस गाड़ी में बैठकर पुत्र के पैरों पर गाड़ी चलाने को तत्पर हुअा, तभी देवी प्रगट हुई और उसने पुष्पवृष्टि की। उस समय न वहाँ गाय थी और न बछड़ा। - देवी ने कहा-“राजन् ! मैंने तुम्हारी परीक्षा ली। प्राणप्रिय इकलौते पुत्र से भी तुम्हें न्याय प्रिय है अतः तुम निर्विघ्नतया दीर्घकाल तक राज्य करो।" यह न्याय पर दृष्टान्त है।
_यदि स्वयं मंत्री हो तो राजा और प्रजा उभय का हित हो सके और धर्म में बाधा न पाये, इस प्रकार करे; जैसा कि अभयकुमार व चारणक्य प्रादि ने किया था।