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श्रावक जीवन-दर्शन / १०७
* देय धन के विलम्ब से ऋषभदत्त को हानि
महापुर नगर में परमात्म-भक्त ऋषभदत्त नाम का श्रावक सेठ रहता था। किसी पर्वदिन में वह मन्दिर - दर्शनार्थ गया । पास में धन नहीं होने से उसने उधार पर मन्दिर में चन्दोवा आदि भेंट करने का संकल्प किया । अन्य अन्य कार्य में व्यस्त हो जाने से वह न दे सका। दुर्भाग्य से उसके घर पर लुटेरों ने लूट मचाई और उसका सब कुछ लूट लिया ।
सेठ के हाथों में शस्त्र देखकर डरे हुए लुटेरों ने शस्त्रों के प्रहार से सेठ ऋषभदत्त को खत्म भी कर दिया ।
सेठ मरकर उसी नगर में निर्दयी, दरिद्री और कृपण भिश्ती के घर भैंसे के रूप में उत्पन्न - हु और प्रतिदिन प्रतिगृह जल आदि के भार को वहन करने लगा । वह नगर बहुत ऊँचाई पर था और नदी बहुत ही निम्न भाग में बहती थी। वह रात और दिन बहुत ही ऊँचाई तक भारवहन की पीड़ा, भूख और प्यास की तीव्र पीड़ा और निरन्तर चाबुकों की मार की घोर पीड़ा को सहता था । एक बार नवीन जिनमन्दिर के परकोटे के लिए जलभार को वहन करते हुए जिनमन्दिर और जिनप्रतिमा को देख उसे जातिस्मरण हो गया । वह किसी भी प्रकार से जिनमन्दिर छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ, तब किसी ज्ञानी के वचन से उसके पुत्र ने पूर्वभव की देवद्रव्य की रकम एक हजार गुणी देकर उसे ऋण मुक्त किया । अन्त में उस भैंसे ने अनशन स्वीकार किया । वह मरकर स्वर्ग में गया और क्रमशः उसने मोक्ष प्राप्त किया ।
देवद्रव्य के अर्पण में विलम्ब करने के इस फल को जानकर देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य आदि प्रदान करने में थोड़ा भी विलम्ब नहीं करना चाहिए |
विवेकी पुरुष व्यवहार में अन्य भी कर्ज चुकाने में विलम्ब नहीं करते हैं तो देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य आदि को चुकाने में देरी क्यों करेंगे ?
जिस समय उपधान संघ आदि के माला - परिधान की जितनी रकम बोल दी जाती है, उतनी रकम उस समय देवद्रव्य की बन जाती है तो फिर उसका उपभोग कैसे किया जाय ? उस रकम से उत्पन्न ब्याज आदि भी कैसे ले सकते हैं ? क्योंकि ऐसा करने से तो देवद्रव्य के भक्षण का दोष लगता है । इस कारण वह देवद्रव्य आदि शीघ्र ही चुका देना चाहिए । यदि शीघ्र चुकाना सम्भव न हो तो पहले ही सप्ताह - पक्ष आदि का समय निश्चित कर लेना चाहिए और निश्चित समय के भीतर बिना मांगे ही चुका देना चाहिए । समय-मर्यादा के बीत जाने पर तो देवद्रव्यादि के उपभोग का दोष लगता है ।
देवद्रव्य आदि की उगाही का कार्य भी अपनी ही रकम की भाँति मन लगाकर शीघ्र करना चाहिए । अन्यथा बहुत विलम्ब करने पर अकाल, देशनाश तथा दारिद्र्य आदि की प्राप्ति हो जाय तो बहुत प्रयत्न करने पर भी वह रकम प्राप्त नहीं होती है, इससे महादोष लगता है ।
* देवद्रव्य की उपेक्षा पर दृष्टान्त
महेन्द्रपुर नगर में एक सुन्दर जिनमन्दिर था । मन्दिर सम्बन्धी चन्दन, कपूर, फूल,