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________________ श्राद्धविधि / १०४ सेठ ने अपने दोनों पुत्रों को अध्ययन हेतु कुशल पंडित के पास रखा । बहुत ही सरलता से पुण्यसार ने सभी विद्याएँ ग्रहण कर लीं । परन्तु अत्यन्त प्रयत्न करने पर भी कर्मसार अक्षर मात्र भी नहीं सीख पाया । पढ़ना-लिखना तो उसके लिए मुश्किल था । पशु तुल्य समझकर उपाध्याय ने भी उसे पढ़ाना छोड़ दिया । क्रमशः दोनों युवावस्था को प्राप्त हुए। माता-पिता की समृद्धि के कारण श्रेष्ठि कन्यानों के साथ उन दोनों का विवाह हो गया । 'परस्पर क्लेश न हो'' - इस प्रकार विचार कर पिता ने उन स्वर्णमुद्रायें देकर अलग कर दिया। माता-पिता ने दीक्षा स्वीकार ली दोनों को बारह-बारह करोड़ और क्रमश: स्वर्ग में गये । स्वजनों के रोकने पर भी कर्मसार अपनी कुबुद्धि से ऐसे-ऐसे व्यवसाय करने लगा, जिनसे हानि ही होने लगी । इस प्रकार थोड़े ही दिनों में उसने बारह करोड़ स्वर्णमुद्रायें खो दीं। चोरों ने गुप्त रूप से पुण्यसार के धन को लूट लिया। दोनों दरिद्री हो गये । क्षुधा आदि से पीड़ित दोनों की पत्नियाँ भी अपने पिता के घर चली गयीं । कहा भी है- " सम्बन्ध न होने पर भी लोग धनवान के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं और वैभव क्षीण हो जाने पर निकट के सम्बन्धी भी सम्बन्ध कहने में लज्जा का अनुभव करते हैं।" वैभव के चले जाने पर गुणवान भी परिजनों के द्वारा निर्गुणी ही गिना जाता है और धनवान पुरुषों का दक्षता प्रादि काल्पनिक गुणों से भी गुरणगान किया जाता है । बुद्धिहीन और भाग्यहीन कहकर लोग उनकी निन्दा करने लगे । निन्दा से लज्जित बने वे दोनों भाई अन्य देश में चले गये । अन्य कोई उपाय न होने से अलग-अलग किसी सेठ के घर नौकर रहे । कर्मसार जिस सेठ के घर रहा, वह सेठ झूठा, व्यापारी और कृपरण था । निश्चित किया वेतन भी नहीं देता था । "अमुक दिन के बाद दूंगा"- - इस प्रकार बहुत दिन बीतने पर भी कर्मसार ने कुछ भी धन नहीं कमाया । पुण्यसार ने कुछ धन कमाया और प्रयत्नपूर्वक उसका रक्षरण भी किया, परन्तु कोई घूर्त उसका धन ले गया । कर्मसार ने अन्य अन्य सेठों के यहाँ नौकरी की । धातुविज्ञान, खानविज्ञान, सिद्धरसायन, रोहणाचल - गमन, मंत्रसाधना, रुदन्ती आदि श्रौषधियों की प्राप्ति इत्यादि कृत्य बड़े पराक्रम के साथ ग्यारह बार किये परन्तु कुबुद्धि तथा विधि-विधान में विपरीतता के कारण कुछ भी धनार्जन नहीं कर सका, बल्कि ये दुःख ही सहन किये । पुण्यसार ने कुछ धन कमाया परन्तु प्रमाद आदि के कारण हर बार खोया । अन्त में दोनों हताश हो गये और एक वाहन पर चढ़कर रत्नद्वीप पहुँचे । वहाँ देवी के आगे मृत्यु को भी स्वीकार करके बैठ गये । आठवें उपवास में देवी ने कहा- "तुम दोनों का भाग्य नहीं है ।" इसे सुनकर कर्मसार खड़ा हो गया ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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