________________
22223
29
30
33
श्रावक जीवन-दर्शन / १७
गुरु के उपदेश के बाद अपनी होशियारी बताने के लिए विस्तार से उपदेश देना । गुरु के बैठने या सोने के तख्ते और संथारा श्रादि को पैर लगाना ।
गुरु के आसन या संथारा पर बैठना या सोना ।
गुरु से ऊँचे आसन पर बैठना ।
गुरु के समान प्रासन पर बैठना ।
श्रावश्यक चूरिंग आदि में - गुरु के वचन को सुनकर बीच में "हाँ! ऐसा है" - इस प्रकार बोलने को अलग श्राशातना मानी है और गुरु से ऊँचे और समान आसन को एक ही प्राशातना में समावेश कर गुरु की तैंतीस आशातनाएँ बतलाई हैं ।
गुरु की जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट श्राशातना
(1) गुरु का पैर आदि से संघट्टन होना जघन्य प्रशातना है ।
(2) अपने श्लेष्म, बलगम व थूक के छींटे लगने से मध्यम प्रशातना है ।
( 3 ) गुरु की आज्ञा नहीं मानना, गुरु की आज्ञा से विपरीत करना, गुरु के वचनों को सुनना ही नहीं और गुरु को कटु वचन श्रादि कहना, यह गुरु की उत्कृष्ट प्रशातना है ।
* स्थापनाचार्य की जघन्य श्रादि श्राशातनाएँ
(1) स्थापनाचार्य को इधर-उधर ले जाना, अपने पैर आदि का स्पर्श होना जघन्य आशातना है ।
(2) स्थापनाचार्य को भूमि पर गिराना, अवज्ञा से रखना मध्यम आशातना है । (3) स्थापनाचार्य खो देना तथा अपने हाथों से टूटना उत्कृष्ट प्रशातना है ।
इसी प्रकार ज्ञान के उपकरण की तरह रजोहरण, मुँहपत्ति, दंडक, दंडिका श्रादि दर्शन और चारित्र के उपकरणों की आशातना का भी त्याग करना चाहिए ।
'प्रहवा नारणाइति' इस वचन के अनुसार ज्ञान दर्शन - चारित्र के उपकरण की भी गुरु रूप में स्थापना कर सकते हैं इसलिए ज्ञानादि के उपकरण भी यथावश्यक ही रखना, ज्यादा न रखना, जहाँ-तहाँ न रखना क्योंकि जहाँ-तहाँ रखने से आशातना होती है और फिर श्रालोचना लेनी पड़ती हैं ।
महानिशीथ सूत्र में कहा है- "अविधि से चोलपट्टा, कपड़ा, रजोहरण तथा दण्ड का उपयोग करे तो उपवास की आलोचना आती है" अतः श्रावक को चरवला, मुँहपत्ति आदि का उपयोग विधिपूर्वक ही करना चाहिए और उपयोग करने के बाद उन्हें योग्य स्थान पर ही रखना चाहिए। यदि अविधि से उपयोग करे और जहाँ-तहाँ रखे तो धर्म की अवज्ञा का दोष लगता है ।
* अनन्त संसार के कारण
इन प्राशातनानों में उत्सूत्र बोलना, अरिहन्त और गुरु की अवगणना / आशातना करना