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भावानुवादकर्ता की कलम से...
यह संसार अनादि है । इस संसार में आत्मा और कर्म का संयोग अनादिकाल से है । इस कर्म संयोग का मूल आत्मा के ही राग-द्वेष परिणाम (अध्यवसाय) हैं । राग-द्वेष के कारण आत्मा कर्म का बन्ध करती है और उसके फलस्वरुप एक गति से अन्य गति में परिभ्रमण कर संसार में भटकती रहती है।
अज्ञान और मोह सन्मार्ग की प्राप्ति में बाधक हैं और इसी कारण अज्ञान व मोह से ग्रस्त आत्माएँ सुख को पाने के लिए ज्यों-ज्यों चेष्टाएं करती हैं, त्यों-त्यों वे दुःख के गर्त में ही अधिकाधिक गिरती जाती हैं और नरक-तिर्यंच की घोरातिघोर यातनाओं को सहन करती हैं।
अज्ञान और मोह के गाढ़ अन्धकार में जहाँ-जहाँ भटकती हुई आत्माओं के उद्धार के लिए ही परम-करुणावतार तारक अरिहन्त परमात्मा केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद धर्म-तीर्थ की स्थापना करते हैं ।
___ अरिहन्त परमात्मा के द्वारा स्थापित यह शासन भव-सागर में जहाज के स्थान पर है । अरिहन्त परमात्मा इस शासन रूपी जहाज के निर्यामक हैं और साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ यह तीर्थ जहाज में बैठे हुए यात्रिक के समान हैं।
तारक अरिहन्त परमात्मा केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद प्रतिदिन प्रथम और अन्तिम प्रहर में धर्मदेशना देकर भव्यात्माओं को इस तीर्थ रूपी जहाज में प्रवेश कराते हैं । जो भव्यात्माए प्रतिबोध पाकर इस तीर्थ रूपी जहाज में प्रवेश पा लेती हैं, वे आत्माएँ अल्प भवों में ही भवसागर के पार को प्राप्तकर अजरामर, शाश्वत मोक्षपद को प्राप्त कर लेती हैं।
मोह के जटिल बन्धन में से शीघ्र मुक्ति पाने के लिए तारक परमात्मा ने सर्वविरति-स्वरुप साधुधर्म का उपदेश दिया है और जो आत्माएँ भौतिक सुख की कुछ आसक्ति एवं शारीरिक अशक्ति के कारण साधुधर्म का पालन करने में सक्षम नहीं हैं, उनके उद्धार के लिए अरिहन्त परमात्मा ने देशविरति स्वरूप श्रावक धर्म का प्रतिपादन किया है।
सर्वविरति अर्थात् साधुधर्म, मोक्षप्राप्ति का मुख्य राजमार्ग है । इस मार्ग को स्वीकार करने वाली आत्माएँ उसी भव में अथवा दो-तीन-सात आदि भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेती हैं । परन्तु जो आत्माएँ साधुधर्म स्वरूप राजमार्ग को स्वीकार करने में हिचकिचाहट महसूस करती हो उनके उद्धार के लिए श्रावकधर्म है । श्रावकधर्म में इतना लचीलापन है कि भवबन्धन से मुक्त बनने की इच्छा रखने वाली कोई भी आत्मा इस धर्म को स्वीकार कर उसका पालन कर सकती है।
तारक अरिहन्त परमात्मा ने धर्मदेशना के माध्यम से श्रावक जीवन का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। श्रावक किसे कहते हैं ? श्रावक का स्वरूप क्या है ? उसके कितने व्रत हैं ? उन व्रतों के कितने भेद प्रभेद हैं ? श्रावक की दिनचर्या कैसी होनी चाहिए ? उसके दैनिक, रात्रिक, चातुर्मासिक, वार्षिक व जीवन सम्बन्धी कौन-कौन से कर्तव्य हैं ? श्रावक की भोजनविधि, व्यापार-विधि एवं जीवन-पद्धति कैसी होनी चाहिए ? इत्यादि समस्त बातों का समाधान अरिहन्त परमात्मा ने किया है | कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी ने 'योगशास्त्र में कहा है
जिनो देवः कृपा धर्मो, गुरवो यत्र साधवः ।। श्रावकत्वाय कस्तस्मै, न श्लाघेताविमढधीः ? ||
जहाँ जिनेश्वर जैसे देव हैं, निर्ग्रन्थ साधु जैसे गुरु हैं और दयामय धर्म है, ऐसे श्रावकपने की कौन बुद्धिमान् प्रशंसा नहीं करेगा ?
इस मोहाधीन संसार में जिस आत्मा को श्रावक-धर्म भी प्राप्त हुआ है, वह आत्मा भी बड़भागी है । तारक महावीर परमात्मा ने अपनी धर्मदेशना के माध्यम से श्रावकधर्म का जो स्वरूप समझाया, उसे गणधर भगवन्तों ने द्वादशांगी के अन्तर्गत उपासक-दशा सूत्र रूप में गूंथ लिया, जिसमें श्रावक धर्म का