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परिच्छेद.
अठारा नाते. अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्ग नैव च नैव च ।
तस्मातपुत्र मुखं दृष्ट्वा पश्चाद्धर्म समाचरेत् ॥ १॥ . ____ इस लिए हे सखे ! दुर्गतिमें पड़ते हुए अपने मातापिताओंका उद्धार करनेके लिए एक पुत्र पैदा करो, पीछे तुमारा संयम लेना सार्थक होसकता है क्योंकि श्रुतिकार यह भी फरमाते हैं कि-पितरो यान्तिनरकेऽवश्यं संतानवर्जिताः।
'जंबूकुमार' बोला हे प्रभव! पुत्रसेही पिताकी सद्गति होती है यह केवल मोहही है, इसमें सत्यका लेश भी नहीं, इस बातको प्रत्यय करानेमें सार्थवाह 'महेश्वरदत्त' का दृष्टान्त विचारिये । तामलिप्त नामा नगरीमें 'महेश्वरदत्त' नामका एक व्यवहारी रहता था, उसके पिताका नाम समुद्र था, जिस प्रकार अनेक नदियां समुद्रमें जाती हैं तोभी उसे पानीसे तृप्ति नहीं होती। उसी प्रकार इस समुद्र नामा व्यवहारीके यहां भी अनेक जगहसे धनकी आमदनी थी परन्तु उसके हृदयमें संतोषको कभी भी स्थान नहीं मिलता था और अनेक प्रकारके माया प्रपंच करनेमें बड़ी दक्षा 'बहुला' नामकी उसकी पत्नी थी । 'महेश्वरदत्त' का पिता 'समुद्र' लोभाकृष्ट मरके उसी देशमें 'महीष' पने उ. त्पन हुआ, 'समुद्र' के मरनेपर उसकी पत्नी 'बहुला' भी उसके वियोगसे आर्तध्यानरूप अनिमें पतंगताको प्राप्त होकर उसी नगरीमें 'शुनी' (कुतिया) पने पैदा हुई । 'महेश्वरदत्त' की गृहिणीका नाम 'गाङ्गिला' था, 'गाङ्गिला' को अपने रूपका बड़ा घमंड रहता था बल्कि इस गुमराईमें वह अपने पतिको भी कुछ न गिनती थी । 'महेश्वरदत्त' 'गाङ्गिला' को बड़ी सुशीला और सती समझता था । अपने श्वसुर तथा सासु' के मरजानेपर 'गाङ्गिला' को घरका सर्वाधिकार मिल गया । 'पति-पनी'
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