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परिच्छेद.]
अगरा नाते. नुभव करता हुआ वहांपर अपने समयको सानन्द व्यतीत करता है । एक दिन वहां रहनेवाली 'कुबेरसेना' नामकी वेश्याको. बहुतसा धन देकर 'कुबेरदत्त' ने अपनी पत्री बना लिया और हमेशा 'कुबेरसेना' केही घरपर रहने लगा, 'कुबेरदत्त' को 'कुवेरसेना' के साथ विषयसुख भोगते हुवे कुछ दिनोंके बाद उनको एक लड़का पैदा हुआ । पाठकगण आप भूलमें न पड़े तो यह वही 'कुबेरसेना' है जिसकी कुक्षिसे इसी 'कुबेरदत्त' का जन्म हुआ था, संसारकी गति बड़ीही विचित्र
और वक्र है । इधर 'कुबेरदत्ता' ने भी अपनी मातासे अपना वृत्तान्त पूछा, माताने संदुककी प्राप्तिसे अन्त तकका वृत्तान्त कह सुनाया ऐसे विचित्र अपने चरित्रको सुन कर 'कुबेरदत्ता'ने संवेगको प्राप्त होकर असार संसारको त्याग दिया और जैनमतकी दीक्षा अंगीकार कर ली और उन दोनो अंगूठीयोंको गुप्त रीतिसे योग्य स्थानपर रक्खा । 'कुबेरदत्ता' दीक्षा ग्रहण करके प्रवर्तनीके साथ रह कर बाईस परिषहोंको सहन करती हुई घोर तपस्यायें करने लगी, 'कुबेरदत्ता' को अनेक प्रकारकी घोर तपस्यायें करते हुवे तपरूप वृक्षका फलरूप अवधि ज्ञान उत्पन्न हुआ, उस वक्त 'कुबेरदत्ता' ने अवधि ज्ञानमें उपयोग दिया कि 'कुबेरदत्त इस वक्त कहां है और उसकी क्या दशा है। 'कुबेरदत्ता'ने अवधि ज्ञानद्वारा 'कुबेरसेना' की संगतिसे पुत्र सहित 'कुबेरदत्त' को मथुरा नगरीमें वास करता देखा परन्तु अकृत्यरूप कीचड़में फंसा हुआ देखकर उसके. मनमें बड़ा खेद हुआ। 'कुबेरदत्ता' सध्वी कितनीएक साध्वियोंको साथ लेकर अपने भाई 'कुबेरदत्त' को बोध करनेके लिए उसके नामाडित अंगू-- को लेकर 'मथुरा नगरी' में गई और उसी 'कुबेरसेना के