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परिच्छेद ] जंबूकुमारका विवाहोत्सव - ब्रह्मचर्यका नियम. दरवाजेपर तोर्फे लगाई हुई हैं लड़ाईका सामान तैयार होरहा है और दरवाजेसे एक बड़ी भारी पाषाणकी शिला गिरनेको होरही है । यह विचित्र घटना देखकर 'जंबूकुमार ' ने जान लिया कि आज किसी शत्रुके आक्रमणका भय है परन्तु इस हालत यदि मैं इस दरवाजे से प्रवेश करूँ ? तो कदाचित् दैवयोगसे ऊपरसे शिला पड़े तो ना तो मेराही पता लगे न रथवानका और न रथका और यदि इस प्रकार अविरतिपनेमें मृत्यु हो गई तो दुर्गति के सिवाय कोई ठिकाना नहीं, क्योंकि कुमृत्युसे मरे हुवे प्राणियों को प्राय सुगति गगनारविंद के समान होती है इस लिए मैं पीछे जाके गुरुमहाराजके पास कुछ व्रत अंगीकार करूँ पीछे जो होना होगा सो हो रहेगा । यह विचार करके 'जंबूकुमार' पीछे गुरुमहाराजके पास आया और गुरुमहाराजको भक्तिपूर्वक वन्दन कर दोनों हाथ जोड़के बोला कि हे भगवन् ! आप कृपा करके मुझे आजन्म ब्रह्मचर्यका नियम करा दो । यह सुनकर गुरुमहाराजने 'जंबूकुमार' को आजन्म ब्रह्मचर्यका नियम करा दिया । 'जंबूकुमार' मन, वचन, कायाकी शुद्धिसे ब्रह्मचर्य का प्रत्याख्यान (पचक्खान) करके हर्षपूर्वक अपने म कानपर आया और अपने मातापितासे यों बोला कि हे तात ! आज मैंने कर्मरोगको क्षय करनेमें संजीवन औषधीके समान श्री सर्वज्ञोपज्ञ धर्मको श्री गणधर भगवानके मुखारविन्दसे सुना है अत एव अब मुझे यह संसार कारागारके समान देख पड़ता है। इस दुःखमय असार संसारमें रहनेकी मेरी इच्छा नहीं। इस लिए आप मुझपर अनुग्रह करके दीक्षा लेनेकी आज्ञा दें, 'जंबूकुमार' के इस वचनको सुनकर उसके मातापिताओंके नेत्रोंमेंसे अश्रुधारा बहने लगी और गद्गद स्वरसे बोले कि हे पुत्र ! हमारी आशालताको