________________
५० .
परिशिष्ट पर्व.
[चौथा की है और इसी कारण इस विनश्वर संसारमें हमेशाके लिए उनका नाम अमर हो गया है, 'धारिणी' शीलविनयादि अत्यंत निर्मल गुणोंसे अपने पतिके हृदयमें ऐसी वसती थी जैसे समुद्रके हृदयमें गंगा वसती है, अर्थात् उन दोनोंका परस्पर ऐसा अखंडित प्रेम था कि जैसे दूध और पानी, वे शरीरसेही भिन्न मालूम पड़तेथे परंतु दोनोंकी चित्तवृत्ति एकही थी मगर कसर इतनीही थी कि उन दोनोंके कोई संतान न थी। इसतरह अनेक प्रकारके सुखोंका अनुभव करते हुवे समय व्यतीत करते थे । एक . दिन 'धारिणी' अपने मनही मन विचार करने लगी कि पूर्वकृत सुकृतके प्रभावसे हमें यहांपर संसारसंबंधि सवही सुख मिले परंतु एक पुत्रके विना ये सबही सुख व्यर्थ हैं, धन्य है उन स्त्रियोंको जो अपनी गोदमें अपने पुत्ररत्नको धारण करती हैं और उनकाही जन्म सफल है, मुझ हतभागिनीका तो जन्म · अवकेशी' वृक्षके समान दुनियामें निष्फलही है क्योंकि
गृहवासोहि पापाय तत्रापि सुतवर्जितः ।
तदेतत्खल्वलवणकुभोजननिभं मम ॥ १॥ ___'धारिणी' जब यह चिन्ता कर रहीथी तब वहांपर 'ऋषभदत्त श्रेष्ठी' आ पहुँचा और उसकी आकृति मलीन देखकर बोला कि हे प्रिये! आज तुमारा मन चिन्तामें मग्न क्यों है ? 'धारिणी' ने अपने पतिसे दुःखका कारण कह सुनाया, यद्यपि दुखी आदमीका दुःख सुननेसे उसे कुछ शांति होती है परंतु पुत्र चिंता जन्य दुःख अपने पतिसे कहनेपरभी 'धारिणी' का दुःख कम न हुआ बल्कि उस दुःखका यहां तक असर हुआ कि 'धारिणी'
१ वन्ध्य
वृक्ष.