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परिच्छेद.] प्रसनचंद्र राजर्षि और वल्कलचीरी. २१ "सोमचंद्र" तापस उस जंगलमें प्राणोंसे प्रिय अपने पुत्रको न देखकर “मोहसे शोकसमुद्र में मग्न होकर वन वनमें फिरने लगा," परंतु “वल्कलचीरी" का कहींभी पता न लगा । एक दिन "प्रसन्नचंद्र" ने उस जंगलमें आदमी भेजकर अपने पिता सोमचंद्रको खबर कराई कि “वल्कलचीरी" यहां आगया है और बड़े आनंदसे समय व्यतीत करता है । यह समाचार सुनकर सोमचंद्रके हृदयमें कुछ शांति हुई परंतु पुत्रके मोहसे रोते रोते. आँखोंमें पड़ल आगयेथे अत एव अब पारणेके समयभी अन्य ऋषियोंकेही लाये हुए फलफूलादिको भक्षण करता है । इस प्रकार बारह वर्ष व्यतीत होनेपर एक दिन अर्ध रात्रिके समय सुखशय्यामें पड़ा हुआ पिताभक्त “वल्कलचीरी" विचार करता है कि अहो! मैं कैसा मंदभाग्य हूँ पैदा होतेही माताके काल करनेपर मुझे अपना सर्वस्व समझकर पिताने उस निर्जन वनमें बड़े कष्टसे पाला और एक क्षणमात्रभी किसीका विश्वास न करके मुझे हमेशा अपने साथही रखतेथे परंतु मैंने दुरात्माने उनको वृद्धावस्थामें तपसेभी अधिक, वियोगजन्य दुःखसे दुःखित किया क्योंकि जब मैं उन्हें तपस्यामें सहायता देनेके लिए समर्थ हुआ तब यहां आकर विक्याशक्त हो सानंद समय व्यतीत करने लगा
और कीड़ीसे हाथिके समान करनेवाले तथा मेरे वियोगसे दुःख संतापको अनुभव करनेवाले पिताको भुला दिया । हा धिक्कार है मुझ पापीष्टको जो ऐसे उपकारी पिताको कुछभी सहायता न देसका बल्कि सहायताके बदलेमें उलटा कष्ट दिया । बस अब प्रातःकाल होनेपर इस जंजालको छोड़कर उसी जंगल में जाकर पूर्वकी तरह पिताकी सेवा करूंगा, ऐसे विचार करते करते "वल्कलचीरी" को शुबह होगया । “वल्कलचीरी" प्रात:काल सुख