________________
परिशिष्ट पर्व.... [पहला तेल फुलेल लगाये । उनकी सुगंधि अच्छी लगनेसे “वल्कलचीरी" भी अपने मनमें कुछ कुछ खुश होने लगा । इस प्रकारसे "वल्कलचीरी" को अनेक तरहके विभूषण तथा वस्त्रादिसे विभूषित करके वेश्याने अपनी एक लड़कीको उसके साथ विवाह दिया। अब वे वधु-वर दोनों एक स्थानपर बैठे हुवे ऐसे शोभते हैं कि, जैसे सरोवरके किनारे हंस-हंसनीका जोड़ा । उन वधु-वरोंका पाणी ग्रहण होते समय सब वेश्यायें मिलकर जब मंगल गीत गाने लगी तब "वल्कलचीरी" चकित होकर विचार करने लगा कि, ये ऋषि लोग सब मिलकर क्यों चिल्लाते हैं ? उसका कुछ तात्पर्य न समझ कर "वल्कलचीरी" मनमें घबराने लगा
और कानोंपर हाथ रख लिए । इधर मुनिवेषको धारण करनेचाली वेश्यायें जो राजाकी आज्ञासे "वल्कलचीरी" को लेने जंग. लमें गईथीं उन्होंने आकर राजा प्रसन्नचंद्रको यह समाचार दिया कि हे, राजन् ! जंगलमें जाकर हमने "वल्कलचीरी" को ऐसा लुभाया था कि, जिससे वह, हमारे साथ आनेको तैयार होगयाथा और हमारे किये संकेत स्थानपरभी आगयाथा परंतु दूरसे आते हुवे सोमचंद्र तापसको देखकर और उसके शापके भयसे हम उस बिचारे "वल्कलचीरी" को वहांही छोड़कर भाग आई हैं और "वल्कलचीरी" अब पिताके आश्रममें न जायगा परंतु हमकोही ढूंडता हुआ बिचारा उस निर्जन वनमें फिरता होगा क्योंकि वह हमारे दिये हुए लड्डु खाकर ऐसा वश होगया है कि जैसे मधुर गायन सुनकर वनवासी मृग होजाता है ।
वेश्याओंसे यह समाचार सुनकर राजा प्रसन्नचंद्रने अपने मनमें बड़ा पश्चात्ताप किया और सोचने लगा कि, हा हा मैंने दुरात्माने यह क्या अकार्य किया कि, जिससे पिता-पुत्रका वि