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परिच्छेद . ]
प्रसन्नचंद्र राजर्षि और वल्कलचीरी.
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विचारा " वल्कलचीरी " उस निर्जन वनमें उन वेश्याओं को ऐसे ढूंडता फिरता है जैसे कि, कोई अपना सर्वस्व खोकर और पागल होकर फिरा करता है ।
इसतरह जंगलमें भ्रमण करते हुए " वल्कलचीरी " ने एक रथ जाता हुआ देखा, देखकर शीघ्रही उसके पास जाकर रथवालेको ऋषि समझकर अभिवन्दन किया रथवाननेभी उससे पूछा कि हे कुमार ! तू कहां जायगा ? " वल्कलचीरी " बोला कि हे महर्षे ! मैं पोतनापुर नामके आश्रम में जाना चाहता हूँ, रथबान बोला- मुझेभी वहांही जाना है अत एव तू मेरे साथ साथ चलाचल पोतना आश्रम में पहुँच जायगा, यह सुनकर " वल्कलचीरी" रथवालेके साथ साथ होगया। मार्गमें जाते हुए रथमें बैठी हुई रथवालेकी स्त्रीकोभी " वल्कलचीरी " तात कहकरही बारबार बुलाता है, रथवानकी स्त्री अपने पति से कहने लगी कि हे स्वामिन् मैं तो स्त्री हूँ और मेरे साथ यह तापस कुमार असंबद्ध वाक्य क्यों बोलता है ? रथवान बोला कि हे प्रिये ! इसने आजतक स्त्रीको नहीं देखा क्योंकि उत्पन्न होकर आजतक जंगलमेंही रहा है और इस भयानक जंगलमें स्त्रीके आनेका कामही क्या, अव एव स्त्री पुरुषमें भेद न समझने वाला यह मुग्ध तापस कुमार तुझेभी पुरुषही समझता है । रथमें जुड़े हुए घोड़ोंको देखकर " वल्कलचीरी " रथवानसे बोला कि हे तात! इन मृगोंको आप क्यों तकलीप देते हो ? ऋषियोंको योग्य नहीं कि किसी जीवको तकलीप देना अत एव आप इन मृगोंको छोड़ दो, रथवान मुस्करा कर " वल्कलचीरी " को बोला कि हे मुनिकुमार, इन मृगों का धर्म यही कार्य करनेका है अत एव इसमें कुछ दूषण नहीं । " रथवानने" " वल्कलचीरी " को खानेके लिए दो खाँडके लड्डू