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परिच्छेद . ] प्रसन्नचंद्र राजर्षि और वल्कलचीरी.
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वनमें जाओ जहां कि, सोमचंद्र तापस रहते हैं और उन्होंके पास जो वल्कलचीरी नामा छोटा मुनि है उसे अपने मीठे मीठे वचनों तथा शरीरके स्पर्श आदिसे लुभाकर यहां ले आओ । वेश्यायें राजाकी आज्ञा पाकर मुनिका वेष धारण कर और थोड़े से खांडके लड्डू लेकर उसी जंगल में चली गई जहांपर सोमचंद्र तापस रहता था । अभी वेश्यायें रस्तेमेंही जा रहीथीं दैवयोगसे उधर वल्कलची भी दूसरे रस्तेसे अपने पिता सोमचंद्र के लिए बिल्वादिके फल लेकर आरहा था अत एव वल्कलचीरीको वेश्याओंकी भेट रस्ते ही होगई ।
वल्कलचीरीने मुनिवेषको धारण करनेवाली उन वेश्याओंको देखकर दूरसेही अभिवन्दन किया और पूछा कि हे महर्षियो ! आप कहांसे आरहे हो और कहां जाते हो ? वल्कलचीरीका यह प्रश्न सुनकर वेश्याओंने उसे पैछान लिया कि उस चित्रके सदृश ऋषिपुत्र तो यही होना चाहिये । अत एव उन्होंने यह उत्तर दिया कि हम पोतना नामके आश्रम से आये हैं और आज तो तुमारेही पाहुने हैं तुम हमारा क्या आतिथ्य करोगे ? । वल्कलचीरी बोला कि हे महर्षियो ! मैं जंगलमें जाकर अपने पिताके लिए ये मधुर मधुर फल लाया हूँ सो आप इन्हें खाओ मैं अपने पिताके लिए और ले आऊँगा । वेश्याओंने वल्कलचीरीके हा
से फल लेलिये और कहने लगीं कि ओहो ! ये तो बड़े निरस फल हैं इन्हें कौन खावे देखो हमारे आश्रमके वृक्षोंके कैसे मधुर फल हैं तुम इनको खाकर देखो। वेश्याओंने यह कहकर वल्कलचीरीका हाथ पकड़कर एक वृक्षके नीचे बैठा लिया और शहर से जो खाँडके मोदक ले गई थीं उनमें से दो लड्डू उसके हाथमें पकड़ा दिये । वल्कलचीरीभी उन लड्डूओंको खाकर बिल्वादिके.