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परिच्छेद.]
नागश्री - ललितांग.
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नको सुवासित कर दिया, जिससे किसीको भी मालूम न हो । अब मेरे मातापिता भी गाँवसे आगये हैं । इस कथाको सुनकर राजा विस्मित होकर बोला - कुमारी ! तूने जो यह कथा सुनाई क्या यह सब सत्य है ? या कल्पित ? लड़की बोली- राजन् ! आप हमेशा जो कथायें सुनते हैं यदि वे सत्य हैं तो यह भी सत्य है । इस प्रकार नागश्रीने कथा सुनाकर राजाको आश्चर्यमें डाल दिया, वैसेही आप भी कल्पित कथा सुनाकर हमें उगते हो ।
'जंबूकुमार ' बोला- प्रिये ! 'ललितांग' के समान मैं विचालंपट नहीं हूँ | तथाहि - ' श्रीवसन्तपुर' नामा नगरमें शासन करनेमें इन्द्रके समान और रूपलावण्य में कुसुमायुद्धके समान 4 'शतायुद्ध' नामका राजा राज्य करता था । रतिके समान रूपवाली और स्त्रीलाओं को जाननेवाली 'ललिता' नामकी उसकी पटरानी थी । एक दिन अपने मनको खुश करनेके लिए रानी 'ललिता' महलके गवाक्षमें बैठी हुई बाजारमें आते जाते पुरु
को देख रही थी । बाजार में घूमते हुए श्रीदेवीके पुत्रके समान अर्थात् रूपलावण्य से साक्षात् कामदेव के समान उसने एक युवान पुरुषको देखा । उस देवकुमार के समान रूपवाले पुरुषको देखकर रानीका तन मन उसके काबुमें न रहा ।
एकाग्र चित्त होकर वह पुतलीके समान उस पुरुषकी और टकटकी लगाकर देखती रही, रानी मनमें विचारने लगी कि यदि इस युवान पुरुषके गलेमें अपने हात डालकर क्रीड़ा करूँ तो मेरा जन्म सफल होवे । यदि इस वक्त मेरे पाँखें जम जायें तो मैं उड़कर इस मनोरम पुरुषके गलेमें जा लिपहूँ । रानीकी चेष्टाओंसे उसके मनोगत भावको जानकर पास बैठी हुई दासी बोली- स्वामिनि ! आपका मन जहांपर रमण करता है वह