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परिशिष्ट पर्व.
[तेरहवाँ
नके उसके हृदयमें बड़ा दुःख पैदा हुआ । पर्वमित्र बोला- भाई ' सोमदत्त !' तुमने अनेक पर्वों तथा महोत्सवोमें मेरी खातर तवजय करके मेरे प्राणोंको भी खरीद लिया है, यदि ऐसी हालत में मैं तुमारी सहायता न करूँ तो मुझ कुलीनकी कुलीनताही क्या ? मैं तुमारी मित्रतासे विवश होकर अनर्थ भी सहन करूँगा, परन्तु इस बातमें सारे कुटुंबको कष्टमें पड़ना होगा, यह दुःख मुझे बड़ा दुस्सा है और तुमारे वियोगका दुःख भी कुछ कम नहीं, मैं दोनों तरफ से दुःखजालमें फँस गया, आगे देखता तो मुँह फाड़के सिंह खड़ा नज़र आता है और पीछे देखता हूँ तो अथाह पानीवाली नदी देख पड़ती है । ऐसी दशा में मैं क्या करूँ कुछ सूझता नहीं ।
इन बालबच्चों को भी मैं नहीं छोड़ सकता और तुमारी सहायता करनेपर राजाको खबर होनेसे सारे कुटुंबकोही अनर्थ में उतरना पड़ेगा, अत एव इस मेरे कुटुंब के ऊपर दयाभाव करके कहीं अन्यत्र पधारो तो ठीक हो । यह कहकर पर्वमित्रने ' सोमदत्त' का सत्कार करके उसे अपने घरसे विदा किया और चलते समय आशीर्वाद दिया कि - यत्र कुत्रापि तुमारा कल्याण हो । दुर्भाग्य दूषित बिचारा 'सोमदत्त' पर्वमित्रके घर से निकलकर विचारने लगा, अहो ! जिन मित्रोंको मैं अपने प्राणोंसे भी प्यारा समझता था और अनेक प्रकार से जिनकी भक्ति करके प्रत्याशा रखता था, जब उन मित्रोंनेही जवाब दे दिया, तब फिर अन्य तो कौन मुझे ऐसी आपत्ति से बचा सकता है ? इस वक्त सिवाय मेरे पुण्यके और कोई मुझे मेरा सहायक नहीं देख पड़ता । खैर अभीतक 'प्रणाममित्र' बाकी है उसके घर चलूँ, परन्तु जिनकी मित्रतामें मैंने हजारोंही रुपया उड़ा दिया, उन्होंनेही जब खुश्क जवाब