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परिच्छेद.] जातिमान अश्व और मूर्ख लड़का. १४५ मूर्ख सिरोमणी जो उन आदमियोंके बीचमेंही बैठा हुआ था, अपने मनमें विचारने लगा । अन्य व्यवसाय तो कोई मिलता नहीं, चलो यही व्यवसाय सही, यदि इसके गधेको पकड़ेंगे तो कुछ न कुछ तो देहीगा, यह सोचकर शीघ्रही उठके उस गधेके पीछे दौड़ा और झटपट जाकर उसकी पूँछ ऐसे पकड़ ली जैसे बन्दर बड़की शाखाको पकड़ लेता है । लोगोंने उसे पूँछ पकड़नेको बहुतही मने किया मगर उसने एक न मानी, गधेकी पूंछ पकड़के छोड़ीही नहीं । गधेका स्वभाव लात मारनेका तो होताही है और फिर तरंगमें आये हुएकी पूंछ पकड़ी जाय फिर तो कहनाही क्या था । गधेने उस जड़बुद्धिको ऐसी लातें लगाई उस बिचारेके आगेके दाँत भी सब टूट गये । उसने इस प्रकार मार खानेपर भी गधेकी पूँछ को न छोड़ा, उसका कारण यह था उसके मनमें यह बात बैठी हुई थी कि जिस व्यवसायको हाथमें लेना उसे छोड़नाही नहीं । जब मार खानेसे असक्त होगया और मुंह भी सारा लहूसे तर होगया तब बेहोश होकर जमीनपर गिर पड़ा । इसी तरह हे स्वामिन् ! आप भी असत्य आग्रह करते हुए उस जड़बुद्धिकी अनुरूपताको प्राप्त होवेगे। यह बात सुनके 'जंबुकुमार' कुछ मुस्कराकर बोला-प्रिये ! 'सोल्लक' के समान अपने कार्यमें मूढ मैं नहीं हूँ।
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