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परिच्छेद.] जातिमान अश्व और मूर्ख लड़का. १४१ श्रावकने 'जिनदास' को देखके उचित प्रणाम किया, 'जिनदास' ने भी अपने साधर्मीको देखके आसनसे उठकर प्रीतिपूर्वक बड़ा सन्मान किया और मधुर वचनोंसे पूछा, महाशयजी आप कहांसे पधारे हैं ? । यह सुनकर वह कपट श्रावक बोला-इस असार संसारसे मुझे विरक्ति हुई है, इस लिए. गार्हस्थ्य धर्मसे मुझे अरुचि प्राप्त हुई है, अब तीर्थ यात्रा करके किसी सुगुरुके पास थोडेही दिनोंमें दीक्षा ग्रहण करनी है । 'जिनदास' यह बात सुनके बड़ा आनन्दित हुआ और कहने लगा-भाई धन्य है आप जैसे महा त्माओंको जो इस असार संसारके मोहबंधनको तोड़कर अपने आत्माका कल्याण करना चाहते हैं । उस मायी श्रावकको संसारसे वैराग्यवान समझके सरलाशयवाला 'जिनदास' उसकी अत्यन्त भक्ति करने लगा । गरम पानीसे उसे अपने बंधुके समान 'जिनदास' ने अपने हाथसे स्नान कराके उसके मस्तकपर केसरका तिलक किया, श्रेष्ठ सुगंधिवाले पुष्पोंकी माली उसके कंठमें डाली और अच्छी अच्छी इतर आदि सुगंध वस्तुओंसे वासित रेसमी वस्त्रकी पौसाक पहनाकर अपने साथही मखमलके आसनपे बैठाके उसे अनेक प्रकारकी श्रेष्ठ खाद्य वस्तुओंसे जिमाया । थोड़ेही परिचयसे 'जिनदास' को उसके ऊपर पूर्ण विश्वास और स्नेह होगया था, उसका कारण यह था, वह 'जिनदास' के साथ वार्तालाप करता हुआ संसारकी असारताही दिखलाता था और ऊपरसे डौल भी ऐसा दिखाता था जैसे कोई सचमुचही दीक्षा लेनेवाला हो । 'जिनदास' और वह बनावटी श्रावक परस्पर बातचीत कर रहे थे इतनेमेंही कोई एक 'जिनदास' का संबंधि आया और वह 'जिनदास' से कहने लगा-भाई! कल मेरे घरपे महोत्सव है, इसलिए एक ससदिनके वास्ते आपको