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परिच्छेद.] मेघरथ और विद्युन्माली. १२१ लिया और चाण्डालोंके मुहल्ले में जाकर एक चाण्डालकी सेवा करने लगे, जब बहुतसे दिन सेवा करते होगये तब 'चाण्डाल' बोला-क्यों भाई ! तुम कहांसे आये हो? और मेरी सेवा क्यों करते हो ? 'मेघरथ' अपने सद्भावको गोपकर बोला-पिताजी! हम दोनों चाण्डालके लड़के हैं, 'क्षितिप्रतिष्ठान' नामा नगरके रहनेवाले हैं । एक दिन हमारे घरमें हमारे निमित्तसे क्लेश होगया , था हमारे मातापिताओंने इस लिए हमें घरसे बाहर निकाल दिया, हम भी फिर अपने घरपर न गये, देश विदेश भ्रमण करते हुए यहां आये हैं अब आपकी सेवामें हम रहना चाहते हैं ।
'चाण्डाल' उनके गुण तथा रूपलावण्यको देखके मुग्ध होगया, अत एव वह बोला-भाई! मेरे दो पुत्री हैं, मैं उनके साथ तुम्हारा विवाह कर देता हूँ और तुम यहां रहकर आनन्दसे समय व्यतीत करो । 'चाण्डाल' ने अच्छा दिन देखके दोनों पुत्रियोंका उन दोनों भाइयोंके साथ विवाह कर दिया, उन दोनों नवोढाओंमें जो 'मेघरथ' को व्याही थी वह काणी थी और जो 'विद्युन्माली' को व्याही थी वह दन्तुरा थी अर्थात् उसके दाँत होठोंसे बाहर निकले हुए थे । 'विद्युन्माली' अपने लक्षसे भ्रष्ट होकर उस कुरूपा चाण्डालकी पुत्रीपर रागवान झेगया और विद्यासिद्धिको भूलकर उस कुरूपा दन्तुराके साथ विश्य लोलुपी होकर अपने ब्रह्मचर्य अमुल्य रत्नको खोबैठा । थोड़ेही दिनोंके बाद 'विद्युन्माली की पनी 'दन्तुरा' गर्भवती होगई । इधर विद्या सिद्ध होजानेपर 'मेघरथ अपने भाई विद्युन्माली' से बोलाभाई! अब अपनी क्यिा सिद्ध होंगई, चलो अब वैतान्य पर्वतपर अपने नगरको चलें । 'मेघरय' को यह खबर न थीं कि मेरा भाई भूखे मनुण्यके समान इस कुरूपा 'चाण्डाली' पर मोहित
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