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परिच्छेद . ]
नूपुर पंडिता. फेरुः स्माहोढभर्तारं हिलोपपतिमिच्छसि । भ्रष्टापत्युश्च जाराच नशिके किं निरीक्षसे ॥ १ ॥ अर्थात् व्याहे हुए पतिको त्यागकर उपपति (जार) की इच्छा करती है ? और अब मूल पति तथा 'उपमति' जारसे भ्रष्ट होकर हे नग्निके! तू क्या ! देख रही है ? | यह सुनकर वह अकेली राजपत्नी भय से काँपने लगी, व्यन्तरदेवने अपना असली रूप धारण करके उसे अपनी समृद्धि दिखाई और बोला- हे पापे ! तूने आज तक बड़े घोर पाप किये हैं अब इस पापरूप arasat धोने के लिए निर्मल जल के समान जिनधर्मको ग्रहण कर, मैं वही तेरा जार हाथीवान हूँ, मुझे दुर्गतिमें भेजने के लिए तूने कुछ कसर नहीं की मगर जिनधर्म के प्रभाव से मैं इस दरजे - पर पहुँचा हूँ। तूने जैसे कर्म किये हैं इन कर्मों के अनुसार सिवाय नरकके तुझे अन्य कोई गति प्राप्त नहीं हो सकती । यदि दुर्गति से बचना चाहती है? तो सर्वोपरि जिनधर्मकी सेवा कर क्योंकि घोराति घोर पाप करनेवाले हजारोंही प्राणी जिनेश्वरदेवके धर्मकी आराधनासे स्वर्ग तथा अपवर्गके अतिथि बने हैं । यह सुनकर 'राजपत्नी ने अपने कुत्सित कर्मों की ओर कुछ अनादरकी दृष्टीसे देखा और उसके मनमें कुछ घृणा भी उत्पन्न हुई । अत एव वह हाथ जोड़कर बोली- मुझे अपने कुत्सित कर्मोंपे बड़ी घृणा आती है, अबसे लेकर मैं सदैव आईद्धर्मकी सेवा करूँगी, मगर मुझे कहीं ठिकानेपर पहुँचा दो । 'व्यन्तरदेव' ने उसे किसी साध्वी के पास पहुँचा दिया, उसने भी साध्वी के पास जाकर जैनमतकी दीक्षा ग्रहण करली |
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इस लिए हे खामीन् ! संसारमें प्रवर्तक और निवर्तक इस मकारके बहुतसे दृष्टान्त हैं आप उस तरफ दृष्टी न देकर संसारके सुखोंका अनुभव करो । 'जंबूकुमार ' बोला- प्रिये ! 'विद्युन्माली ' के समान मैं विषय लोलपी नहीं हूँ ।