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शूद्र जाति को अपने अपने संघमें सम्मिलित करलेते तो उपदेश चाहे जितना प्रभावशालि होता ताभी उच्चवर्ण का लोकसमूह उनके संघमें सम्मिलित होने से रुकजाता। संभवनीय है कि कदाचित इसी विचार से उन्होंने शूद्रोंको अपने अपने संघों में नहीं मिलाये हों।
बौद्ध और जैन संघ बलवान होगये। अखिल भारत इन संघों से आवृत होगया । ब्राह्मण और उनका धर्म जहांतहां से अदृश्य होनेलगा। बडे बडे राजा भी इन्हीं धर्मों का पालन करनेवाले हुए; और वेद धर्मियों में " को वेदानुद्धरिषति" (वेदका उद्धार कौन करेगा ) ऐसे प्रश्न उपस्थित हुए।
इस समय ब्राह्मण और जैन बुद्धों में कदर शास्त्रार्थ होकर हारजीत हुआ करती; परंतु इससे जैन बौद्ध संघ की वृद्धि किसी प्रकार न रुकी। " हस्तिना ताडय मानोपि न गच्छेज्जैन मंदिरं" ऐसे वैरभाव पूर्ण शब्दोच्चारण होने लगे। धर्म के कारण राजा राजाओंमें युद्ध हुए। एक दुसरे के विरुद्ध वैरभावयुक्त निंदा प्रचुर अनेक ग्रंथ निर्माण किये गये । वाममार्ग के प्रचारसे ब्राह्मण धर्मको अति वीभत्स स्वरूप प्राप्त हो चुका था। धर्मके नाम पल पलमें होनेवाली पशुहिंसा, मनुष्यहिंसा, मधपान तथा दुराचार से ब्राह्मण धर्म जनता की दृष्टिमें घृणा पूर्ण बनचुका था। इसीकारण ब्रह्माणों के सब प्रयत्न निष्फल होकर जैन बौद्धों की प्रतिदिन वृद्धि होती गई। अंतमें जब