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वर्ण की चाहे जिसकी कन्या का ग्रहण करे परंतु निम्न वर्ण का पुरुष उच्च वर्णीय कन्या न लेने पावे इस वास्ते खास नियम निर्माण किये गये और ऐसे होने वाले लग्नों को अनुलोम लग्न कहा गया । नियम तो ऐसे किये गये किन्तु उनका निर्विघ्न पालन न हुआ। पूर्व प्रथा की छाप लोगों के अंतःकरण पर बसी रहने से अथवा अस्वाभाविक नियमों का पालन होना अशक्य होने से वा उस समय का जन समुदाय नूतन बंधन सहन करने जैसा न होने से अथवा अन्य कोई कारणों से उच्च वर्णीय कन्याओं का निम्न वर्ण के पुरषों से शरीर संबंध पचलित रहा। अर्थात् ऐसे नियम बाह्य होने वाले लग्नों को उच्चवर्णीय लोक ' प्रतिलोम' ( उलटे, विपरीत ) लग्न के नाम से संबोधन करने लगे। ऐसे लग्न करने वालों को शिक्षारूप ऐसा नियम किया गया कि, लग्न करने वाले पुरुष के वर्ण से कन्या का वर्ण जितना अधिक उच्च हो उतनी ही उस लग्न से होने वाली प्रजा अधिकाधिक निम्न श्रेणी की हो. उदाहरणार्थः–वैश्य कन्या को यदि शूद्र से प्रजोत्पत्ति होवे तो वह वैदेहक * जाति की हो। इन्होंने बकरे भैसी
आदि पशुओं का पालन करना और उनके घी दूध बेचकर निर्वाह करना । यदि शूद्र वैश्य स्त्री से व्यभिचार कर प्रजोत्पत्ति
* वैश्यायां शूद्र संसर्गाजातो वैदेहकः स्मृतः। अजानं पालानां कुर्यान्महिवीणां गवामपि । (औश नस स्मृति श्लोक. २०)