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के पहिले निद्रा से उठ बैठना । यह यात्रियों का संघ जिन नगरों में होकर निकला वहां के आभीशों ने उस का पूर्ण सत्कार किया । मार्ग में सब लोक संप्रदाय के उचित गीत गाते जाते और जहां कोई जिनेश्वरों का बिम्व और श्वतांबरों के समूह मिलते वहां उनका अर्चन कर वह आगे बढता । इस तरह चलते चलते वह संघ सहित शत्रुंजय पर्वत के शिखर पर पहुंचा। वहां पूजाएं की, और श्री नेमिनाथ तथा श्री पार्श्वनाथ के दो विशाल मंदिर बनवाए। पिछले मंदिर के मंडप में अपने पूर्वज तथा सुहृदों की अश्वारोहित मूर्तियां स्थापित की वहां एक शीतल जलका सरोवर भी वनवाया । तदनंतर वहां से चलकर वह रैवतक ( गिरनार ) पहुंचा । वहां पर श्री नेमिनाथ के मंदिर में जाकर भावपूर्ण पूजा की। यहां से श्री जिनेन्द्र चरणारविंद को प्रमाणकर अर्थीजनों को दान देकर अपने नगर को लौटकर उन्हें बिदा किया । इस संघ में सात लाख मनुष्य साथ होने का वस्तुपाल प्रबंध में उल्लेख है।
मंदिरादिः -
इन दोनों भाईयों ने दक्षिण में श्री शैल, पश्चिम में प्रभास, उत्तर में केंदार और पूर्व में काशीतक इतने धर्मं स्थान बनवाये कि जिनका गिनना कठिन है । शत्रुंजय गिरनार तथा आबू पर तो इन्होंने अलौकिक मंदिर बनवाए इनमें