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समझा । हे देव ! अब कलियुग विद्यमान है। इसमें न तो सेवकों में कार्यपरायणता है, और न स्वामियों में कृतज्ञता है । दुष्ट मंत्री राजाओं को बुरे मार्ग पर चलाते हैं, जिससे दोनों का नाश हो जाता है। यह सत्य है कि, संसार में निर्लोभी कोई नहीं, परंतु कार्य ऐसा होना चाहिये कि जिससे इस लोक में निंदा और परलोक में बाधा न हो, अतएव:
पुरस्कृत्य न्यायं खलदमनात्य लहजा, नरानिर्जित्य श्रीपति चरितमाश्रित्य च यदि ।। समुद्धत धात्रीमभिलषति तत्व शिरसा, धृतो देवा देशः स्फुटमपरा स्वस्ती भवते ॥
- [है। ७७ ॥ की० को० ॥] • आशयः-यदि न्याय मार्ग का अवलम्बन करते हुए दुष्टों को मुँह न लगाते हुए सहज शत्रुओं ( काम क्रोधादि) से दबते हुए, धर्म परायण रहते हुए, आप अपने साम्राज्य का उद्धार करना चाहते हैं तो सेवा करने के लिये यह मस्तक आपके चरणों में उपस्थित है।
- गुण ग्राहक राजा ने विवेकी वस्तुपाल के वचन उत्साह से सुने और प्रसन्न चित्त से दोनों भाइयों को राजमुद्रा देकर मंत्री पद पर नियुक्त किया। वि. सं. १२७५ । थोडे समय के बाद वस्तुपाल को, " स्तंभतीर्थ " खंबात भेज दिया। वहां , उसका बडा स्वागत हुवा। उसने प्रजा के सर्व कष्ट क्रमशः