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विवाहित स्त्री का उसके सुसराल का जो धर्म हो वही होता है । अर्थात कन्या का लग्न होने के पश्चात वह अपने ससुराल का धर्म पालन करे। जब साधुजनों का कर्तव्य अपने धर्म की प्रभावना करना तथा अन्य धर्मियों को अपने धर्म के अनुयायी बनाने का है तो क्या वे इन नवविवाहित अबला ओं को अपने धर्मानुरागिनी न बना सेंकेगे ? यदि हमारे साधु इस योग्य हैं तो उन्हें उक्त अयोग्य बंघन रुप प्रतिज्ञाएं करवाने की आवश्यकता क्या ? ऐसी प्रतिज्ञाएं करवाने वाले साधु तो अपने आपको असमर्थ सिद्ध करते हैं।
अब रहे बाल वृद्ध विवाहादिक सामाजिक प्रश्न । इन की रोक के संबंध में नवयुवक और इनेगिने नये विचार के वृद्ध जन अब विचार करने लगे हैं परंतु इनके विरुद्ध अभी कई लकीर के फकीर भी हैं। इस कार्य के लिये ज्ञातिकी कॉन्फरन्स कुछ हितकारी होगी वा नहीं ? यह एक प्रश्न है। जहांतक कान्फरन्स, निज ज्ञाति के भिन्न भिन्न लोगों का परिचय बढाने का कार्य करती रहे, ज्ञाति में विद्या प्रचार तथा सामाजिक सुधार करती रहे, वहांतक वह आदरणीय तथा उपयोगी संस्था कही जा सकती है; परंतु वह जब ज्ञाति में वृथा अभिमान के कारण अनिष्ट भेद भाव दृढ करने का अथवा फूट फैलाने का कार्य करे तो वह अनिष्ट तथा निरुपयोगी होती है। कॉन्फरन्सों ने उक्त प्रश्नों का विचार करना चाहिये ।